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अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011
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है कि महाव्रती आदि को भक्तिपूर्वक शुद्ध आहार दान दे।
प्रश्न यह उठता है कि आज गृहस्थ के घर में इतना पवित्र, शुद्ध एवं सात्त्विक भोजन तैयार होता है? जो किसी व्रती या महाव्रती को परोसा जा सके। आज तो संकट यह होता है कि चौका कौन लगाये? और संयोग से महाव्रतियों का संघ आ जाये तो स्थिति और विषम हो जाती है। इसका कारण शायद यही है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने गृहस्थों की रसोई में धावा बोल रखा है। डिब्बा बन्द संस्कृति हमारे घरों में प्रवेश कर गई हैं। माताएँ बहिनें इतनी सुखशील होती जा रहीं हैं या कहें कि तथाकथित आधुनिकता के कारण उन्हें घर के कार्य करते हुए अच्छा नहीं लगता या शर्म आती है। बाजार सामग्रियों से पटे पड़े हैं। बाजार जाओ और अपने-अपने पसंद का सामान बंद पैकिटों में घर ले आओ न समय की मर्यादा है, और न भक्ष्य - अभक्ष्य का विचार और न किसी अन्य बात की चिंता । प्रीजर्वेटिब्स (रसायन विशेष) ने वस्तुओं की उम्र कई गुना बढ़ा दी है। यही रसायन जब वस्तुओं के माध्यम से हमारे शरीर में जाता है तो अनेक प्रकार के रोग भी पैदा करता है।
वस्तुत: आज के समय में गृहस्थ की दोहरी भूमिका है। एक ओर वह महाव्रतियों का संरक्षक या पोषणकर्त्ता है दूसरी ओर वह स्वयं साधक है और मुनि संस्था का नियंत्रक पर्यवेक्षक भी। लेकिन शायद वह अपनी इस दोहरी भूमिका को निभा नहीं पा रहा है। इसीलिए प्राय: यह एक आलोचना का विषय बना रहता है कि श्रमण संघ परिग्रही होता जा रहा है। यह बात किसी हद तक सही भी है। परन्तु हमें यह भी विचार करना है कि इस सबमें गृहस्थों की क्या भूमिका है? इस विषय में एक-दो प्रसंग ध्यान देने योग्य हैं
एक बार कुछ लोगों ने आचार्य शान्तिसागर के पास जाकर शिकायत करते हुए कहा कि महाराज! कुछ साधुओं में आचार के प्रति शिथिलता देखी जाती है, परिग्रह का साथ देखा जाता है, इससे जैन परंपरा के साधुओं, विशेषकर दिगम्बर साधुओं की छवि खराब होती है। इससे बचने का उपाय बताइये। तब आचार्य श्री ने कहा थासाधु-साध्वियों को परिग्रह देता कौन है? उन्हें शिथिल बनाता कौन है? आप गृहस्थ ही ना इसलिए पहले गृहस्थ को सुधारना आवश्यक है श्रावक अपने श्रावक धर्म अर्थात् कर्त्तव्य को समझे / जाने श्रावकों में शिक्षा व स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ने से ही वे अपने साधु-संतों के धर्म ( कर्त्तव्य ) को अच्छी तरह समझ सकेंगे । २०
आचार्य धर्मसागर महाराज ने भी किसी प्रसंग में कहा था कि जब मुनि या आर्यिका दीक्षा होती है तो दीक्षित व्यक्ति के पास पीछी कमण्डलु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। श्रावकों के पुनः संपर्क में आकर कुछ मुनि परिग्रह संबन्धी दोष से युक्त हो जाते हैं। इससे समाज में उनकी आलोचना होती है। अतः समाज के लोगों को चाहिए कि वे साधक को परिग्रही न बनाएँ।
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वस्तुतः मुनि आर्यिका और श्रावक-श्राविका परस्पर में एक दूसरे के पूरक हैं, शोभा के कारण हैं। जिस प्रकार कमल से जल की शोभा होती है और जल से ही कमल अलंकृत होता है, लेकिन सरोवर या तालाब में जब जल और कमल, दोनों हों तो वह सुशोभित होता है और कंगन की शोभा उसमें मणि-मोतियों के लगे होने पर होती है और मणि मोती भी