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अनेकान्त
की मिली है १ । तथा भरतपुर के 'अघपुर' नामक स्थान मूर्तिया नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई। वि० स १२७५ मे रचे से प्राप्त मूर्तिखण्ड पर सन् ११९२ के उत्कीर्ण लेख में गये जिनदत्त चरित को प्रशस्ति में कवि लक्ष्मण ने तहनसहनपाल नरेश का उल्लेख है । एव मुसलमानी तवारीखो गढ़ के विनाश की घटना का उल्लेख किया है । चूंकि कवि में हिजरी सन् ५७२ सन् ११६२ मे कुमारपाल का स्वयं वहा का निवासी था और स्वयं अपने परिवार सहित उल्लेख है। इन ऐतिहासिक तथ्यों से ऊपर वाली परम्परा वहां से भागा था। कवि लक्ष्मण ने वहाँ के राजा का का क्रम ठीक जान पडता है। फिर भी इस सम्बन्ध मे और यदि उल्लेख कर दिया होता तो समस्या सहज ही समाप्त अन्वेषण करने की प्रावश्यकता है। जिससे अन्य प्रमाणो हो जाती, पर ऐसा नहीं हुग्रा । की रोशनी में उम पर विशेष प्रकाश पड़ सके। हो सकता
जब अजयपाल का गज्य वहा सन् ११५० (वि० है कि करौली में शासको की प्रामाणिक सूची और सम
स० १२०७) मे तहनगढ़ में था, और कितने समय रहा, यादि मिल सके।
यह अभी प्रज्ञात है। पर मन् ११७० स पूर्व तक उसकी कहा जाता है कि कुमारपाल मन् ११९२ (वि. स. सीमा का अनुमान किया जा सकता है। क्योंकि सन् १२४६) के ग्रास-पाम गद्दी पर बैठा था। मुसलमानी ११७० मे हरिपाल का राज्य था। चूकि चूनड़ी रास तबारीख 'जलमामोर' म हसन निजामी ने लिखा है विनयचन्द्र ने अजयनरेन्द्र (अजयपाल) के राज विहार मे कि-हिजरी सन् ५७२ (वि० स० १२५२) मे मुहम्मद
बैठ कर बनाया। इमसे स्पष्ट है कि उक्त चूनड़ी रास गोरी ने तहनगढ़ पर प्राक्रमण कर अधिकार कर लिया विक्रम की १३वी शताब्दी के प्रारम्भिक समय में रचा था। उस समय वहा का राजा कुमारपाल था। उस गया है। मुसलमानी माम्राज्य होने पर तो वहा राज समय वहा के हिन्दू जैन मभ्य परिवार नगर छोडकर यत्र- विहार में बैठ कर रचना करना संभव भी नही जचता। तत्र भाग गये। वहा मूर्तिपूजा का बड़ा जोर था अतएव उस समय तो उस नगर की बहुत बुरी दशा थी। ऐसी वहां बडा अन्याय अत्याचार किया गया. मन्दिर और दशा में बिना किसी प्रमाण के उसे स० १४०० के प्रास
पाम को रचना कैसे कहा जा सकता है । प्राशा है नाहटा १. एपिग्राफिका इडिका खण्ड २ १० २७६ तथा जी इस पर विचार करेगे और आगे झट-पट लिखने की A canningham V.L. XX.
प्रपेक्षा सोच-विचार कर लिखने का प्रयत्न करेगे। ★
[१० २६ का शेषास] अरसप्पोडेय ने चारुकीर्ति पण्डित को वेण्णेगाव की कुछ प्रदान की थी। यह सनद मन १८१० की है (भाग १ भूमि अर्पित की थी (भाग ४१० ३४७)।
१० ३५६) । बाईसवा उल्लेख श्रवणबेलगुल के शक १७३१-सन
चौबीसवा उल्लेख भी श्रवणबेलगुल की एक सनद १.१० के एक समाधिलेख मे है। इसके अनुसार देसिगण का है । इसके अनुसार मन १८३० में कृष्ण राज वडेयर के चारुकीर्ति के शिष्य प्रजितकीति के शिय शान्ति कीर्ति ने चारुकीर्तिमठ की रक्षा के लिए चार ग्राम अर्पित किये के शिष्य अजितिकीर्ति का उक्त वर्ष में स्वर्गवास हुआ थे (भाग ११० २६१) था (भाग ११० १५४)।
पच्चीसवा उल्लेख श्रवा बेलगुल के दो मूर्तिलेखो का तेईसवा उल्लेख श्रवणबेलगुल मे प्राप्त एक सनद का है। इसके अनुसार शक १७७८-सन १८५६ मे चारुकीर्ति है। इसके अनुसार दीवान पूर्णया ने बेलगुल के सन्यासी पण्डित के शिष्य मन्मतिसागर वर्णी के लिए ये मूर्तिया चारुकीर्ति को एक ग्राम की प्राय दिये जाने की संमति स्थापित की गई थीं (भाग १ पृ० ३६४-६५)।*