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अनेकान्त
रहित होनेके कारण कल्याणरूप-और अनाबाध-निर्वाध इस प्रकार संशय के विलीन हो जाने पर केशिकुमार -स्थान कौन-सा मानते हो?
ने महायशस्वी गौतम को शिर झुकाकर नमस्कार किया गौतम-लोक के अग्र भाग में दुरारोह-कठिनता और पूर्व तीर्थंकर को अभीष्ट व अन्तिम तीर्थकर प्ररूपित से प्राप्त होने वाला-एक शाश्वत स्थान (मोक्ष) है शुभावह-शुभोत्पादक-अथवा सुखावह-सुखप्रद-मार्ग जहा न जरा है, न मृत्यु है, न व्याधियां है, और न वेदना मे भावत: पांच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार भी है।
किया। केशि-वह स्थान कौन-सा कहा गया है ?
___ केशिकुमार और गौतम के इस संमिलन में श्रुत व गौतम--- वह स्थान निर्वाण, अबाघ, सिद्धि, लोकाग्र, शील का-ज्ञान-चारित्र का-उत्कर्ष और अतिशय क्षेम, शिव और श्रनाबाध है; जिसे महर्षि जन प्राप्त करते प्रयोजनीभूत पदार्थों का निर्णय हुआ। समस्त परिषदहैं । वह शाश्वत निवासभूत स्थान लोकशिखर पर दुरारोह श्रोतृवर्ग- सन्तुष्ट होकर सन्मार्ग पर चलने के लिए उद्यत है, जिसे पाकर हे मुने । ससार को विनष्ट करने वाले हा-मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुआ । अन्त मे ग्रन्थकार कहते सिद्ध परमात्मा कभी शोकाकुल नहीं होते। (७९-८४) है कि इस प्रकार से संस्तुत- वणित-वे भगवान् केशि
इस प्रकार गौतम के द्वारा किये गये अपने प्रश्नों के कुमार श्रमण और गौतम गणधर प्रसन्नता को प्राप्त हो। समाधान से सन्तुष्ट हो अन्त मे केशिकुमार उनकी प्रशसा (८८-८९) मे कहते है कि हे गौतम । तुम्हारी बुद्धि उत्कृष्ट है, हे सशयातीत व सर्वमूत्र-महोदधे ! तुम्हारे लिए नमस्कार है।
२ एव तु ससाए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे ।
अभिवदित्ता सिरसा गोयम तु महायस ॥८६ १ साह गोयम पन्ना ते छिन्नो मे ससपो इमो।
पचमहव्वय धम्म पडिवज्जति भावप्रो । नमो ते संसयाईय सव्वसुत्त-महोयही ।।८५
पुरिमिम्स पच्छिमम्मी मग्गे नत्थ सुहावहे ।।८७
आत्म-निरीक्षण मुमुक्ष को प्रात्म-निरीक्षण करना अत्यन्त आवश्यक है, जैसे व्यापारी को हिसाब द्वारा लाभ अलाभ का जानना प्रावश्यक होता है। उसी तरह प्रात्म-निरीक्षण के बिना आत्मगोधन मे सफलता नहीं मिल सकती। जब ज्ञानी अपने जीवन मे प्रात्म-निरीक्षण का सकल्प कर लेता है, तब वह जीवन को समुन्नत बनाने में असाधारण सहायक बनता है। प्रात्म-निरीक्षण प्रात्मोन्नयन का अमोघ उपाय है । सम्यग्दृष्टि अपना आत्म-निरीक्षण करता है, और गर्दा निन्दा द्वारा आत्म परिणति को निर्मल बनाने का उपक्रम करता रहता है। तभी वह प्रात्म-शोधन मे सफलता प्राप्त करता है। क्योकि स्वय का दोप ध्यान में आये बिना उमका परिमार्जन करना अशक्य है। आत्मनिरीक्षण से अपगध सामने आ जाता है । और तब ज्ञानी आसानी से उसका शमन या परिमार्जन कर लेता है।
जब तक व्यक्ति प्रात्मनिरीक्षक नही बनता, तब तक दोषो का परिमार्जन नही कर पाता और इसी लिए वह साध्य की सफलता के लिए सदिग्धावस्था मे ही झूलता रहता है। ऊँचे नही उठ पाता। जिस प्रकार उत्साही कृषक प्रतेक श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम बीजो को उपलब्ध करके सफलता नहीं प्राप्त कर सकता, उसी प्रकार जीवात्मा प्रात्म-भूमि मे आत्मान्वेषण और परिमार्जन के बिना समता एव आनन्द का पादप पल्लवित पुष्पित और फलित नही कर सकता। उसकी अपरिमित अभिलाषाएँ स्वप्निल मात्र रह जाती है।
दूसरों का दोष देखना सुगम है, पर अपने दोष पर दृष्टिपात करना दुःसाध्य है। जो मानव ठोकरें खाकर संभल जाता है और प्रात्मान्वेषण में निष्णात या परिपक्व हो जाता है वह साध्य की सफलता प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है । आत्मनिरीक्षण से योग्यता, अयोग्ता, पात्रता, अपात्रता, पवित्रता और अपवित्रता का सहज ही आभास हो जाता है। अतएव मुमुक्षु को चाहिए कि वह प्रात्मनिरीक्षण द्वारा अपने को निर्दोष साधक बनाता हा स्वरस में मग्न होने का प्रयत्न करे।
-परमानन्द शास्त्री