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बुधजन के काव्य में नीति
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के संदर्भ मे परखा जाए । और जब तक कोई कथन वैध पा सकता । प्रागे चलकर फिर ऐसे ही वास्तविक रूपमें नहीं होगा, वह उपादेय नहीं हो सकता; क्योंकि वैधता हो गये अवैध निर्णय जब पाचार के मन स्तम्भ बन जाते का तात्पर्य है निष्कर्षगत सत्य की प्राधारगत सत्य के साथ है तो वे अधविश्वास का रूप धारण कर लेते है । स्याद्वाद संगति; और जब तक ऐसी संगति उपलब्ध नहीं होगी, रूपी विवेक इसीलिए उपादेयता का अनन्य सहचर है। आधारगत सत्य की पृष्ठभूमि में निष्कर्षगत सत्य वस्तुतः उसे धर्म से अलग नहीं किया जा सकता। धर्म प्रधकाम नही कर सकता है । जब वह काम नही कर सकता, विश्वासो की नुमायश नहीं है । वह ज्ञान और विवेक का तो वह उपादेय भी नहीं कहा जा सकता। यह बात दूसरी उन्नायक है । वह जीवन मूल्यों का सर्जक है। मोक्ष उन है, कि कोई किसी कथन को सदर्भगत माघार की पृष्ठ- मूल्यो की शृखला में सर्वोच्च मूल्य है। जैनधर्म और भमि मे परखे ही नही और उसे सही मानकर पाचरण प्राचार का लक्ष्य-विन्दु वही सर्वोच्च मूल्य है जो स्याद्वादी का मानदण्ड बना ले; लेकिन यह निश्चित है, कि वह विवेक के बिना सम्भव नही। अस्तु, स्याद्वाद सर्वोच्च कथन आचरण मे उपादेय तभी होगा जब वह वस्तुतः उपादेयता का अधिकरण है। वैध होगा। उदाहरण स्वरूप अहिंसा को ही ले । अहिंसा सार रूप में :नामक सत्य तभी उपादेय है जबकि वह चित्तशुद्धि और वैधता निष्कर्ष-प्राधार-सापेक्षता मे अनुव्याप्त तार्किक निर्वाण-प्राप्ति की भूमिका मे आचरित होता है। चित्त- सगति का दूसरा नाम है। शुद्धि की भूमिका मे अहिंसा एक वैध निष्कर्ष है। अब उपादेयता मूल्य-सापेक्षतामे किया गया वैध निर्णय है। यही पर कोई निर्वाण-प्राप्ति के सदर्भ में हिंसा का उपदेश उपादेयता वैधता के बिना सम्भव नही । करे, तो इस निर्णय को कोई कितना ही एकान्त या निर- स्यावाद वैधता की एजेसी है। पेक्ष क्यो न माने, वह उपादेय निर्णय की कोटि मे नही अस्तु, स्याद्वाद उपादेयता का अधिकरण है।
'बुधजन के काव्य में नोति'
गंगाराम गर्ग' एम. ए. कवि एक सामाजिक प्राणी है। वह केवल अपनी पारस्परिक कलह, वैमनस्य, विद्रोह, गोषण व परतत्रता के काल्पनिक दुनिया में ही उडान नही भर सकता; उमे काल मे तुलमी और मैथिलीशरण जैसे भारती के प्रसर लोकोन्नति की दष्टि से भी अपनी कृति को उपादेय बनाना गायक ही मन मे शान्ति व एकता तथा प्राणो मे वीरता होता है। जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण जीव- का मत्र फूक देने में समर्थ हुए है। उनका युग-युगीन नोपयोगी बातें बतलाना उसकी कविता का प्रमुख लक्ष्य साहित्य चिरकाल तक भारतीय जीवन का प्रतिनिधित्व बन जाता है। कोरा उपदेश बुद्धि-ग्राह्य होने के कारण करता रहेगा। मनुष्य को सुधारने में सफल नही होता; क्योकि काव्यगत जैन-रचनाए भारतीय नीति-काव्य को प्रक्षय राशि नीति तत्त्व हृदय को स्पर्श करने के कारण व्यक्ति के कटु है। जैन-धर्म की प्राचार-प्रधानता के कारण जैन साहित्य स्वभाव-परिवर्तन अथवा लोकोन्नति मे अधिक प्रभावशाली में भी नीति उक्तियाँ प्रधान लक्ष्य बन कर पाई है। मध्यसिद्ध होता है। काव्य-सागर में निमग्न व्यक्ति शन. शनै कालीन हिन्दी काव्याकाश मे तुलसी, विहारी, रहीम व कवि की विचारधारापो से प्रेरित होकर स्वतः जीवनोः वृन्द के समान बनारसीदास, द्यानतराय, भूधरदास व बुधपयोगी पथ की ओर उन्मुख होता है। यही कारण है कि जन आदि जैन कवि भी उन नक्षत्रो में से है जो अपने