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मोक्षमार्गप्रकाशक का प्रारूप
जिह जीव जिनवर का लिंग धार्या पर राखकरि माथा का ए भेषधारी है''लीचकरि समस्त परिग्रह छांड्या नाहीं। (सस्ती ग्रंथ माला ताका उत्तर-जैसे राजाची स्थापना चित्रामादिक प्रथन सं. पृ. २६९-७०)
करि कर तो राजा का प्रतिपक्षी नाही; पर कोई सामान्य - २ बहरि जहां मनिक धात्री'-दुत प्रादि छयालीस दोष मनुष्य आपकी गजा मनाव, तौ तिसका.प्रतिपक्षी होह। माहारादिविष कहे हैं, तहा गहस्थनिके बालकनिकौं प्रसन्न तैसे अरहतादिक की पाषाणादिविर्षे स्थापना बनाव, ता करना, समाचार कहना, मंत्र-पोषषि ज्योतिषादि कार्य तिनका प्रतिपक्षी नाही, पर कोई सामान्य मनुष्य आपको बतावना इत्यादि, बहुरि किया कराया अनुमोद्या भोजन मुनि मनावं, तो वह मुनिन का प्रतिपक्षी भया। ऐसे भी 'लना इत्यादि क्रिया का निपंध किया है, सो अब कालदोष स्थापना होती हाय, तो प्ररहंत भी माफ्को मनाया। (स इन ही दोषनिको लगाय पाहारादि ग्रहै है। (स. न. प. प. पृ. २७३) २७०)
४ पद्मपुराणविष यह कथा है-जो श्रेष्ठी धर्मात्मा ३ यहा कोउ कहै, ऐसे गुरु तो अबार नाही, तात चारण मुनिनको भ्रमत भ्रष्ट जानि आहार न दिया, तो जैसे परहत की स्थापना प्रतिमा है, तसं गुरुनिकी स्थापना प्रत्यक्ष भ्रष्ट तिनको दानादिक देना कैसे सभव? (स.प्र.
पृ. २७४-७५) मज्जण-मंडणधादी खेल्लावण-खीर-प्रबधादी य ।
५ बहुरि जिनमदिर तो धर्म का ठिकाना है। तहां पचविधधादिकम्मेणुप्पादो धादिदोपो दु॥
नाना कुकथा करनी, सोवना इत्यादिक प्रमादरूप प्रवर्त, वा मूलाचार ६-२८)
नहा बाग वाडी' इत्यादि बनाय विषय-कषाय पोप, बहुरि घापयति दधातीति वा घात्री। मार्जनयात्री बाल लोभी पुरुषनिकी गुरु मानि दानादिक दें वा तिनकी असत्य स्नपयति या सा मानधात्री । मण्डयति विभूषयति तिल- मति करि महतपनी मान, इत्यादि प्रकार करि विषयकादिभिर्या सा मण्डनधात्री मण्डननिमित्त माता। बाल कार्यानको तो बघावं अर धर्म मान सो जिनधर्म तो क्रीडयति रमयति क्रीड़तधात्री क्रीडानिमित्त माता। क्षीर वीतरागभावरूप है, तिस विर्ष ऐसी प्रवृत्ति कालदोषत ही धारयति दधाति या सा क्षीरधात्री स्तनपायिनी। अम्ब- देखिए है । (म. प्र. पृ. २०) घात्री जननी, स्वपयति या साप्यम्बधात्री। एतासा पञ्च
हमारा अपना अभिप्राय विधानां धात्रीणां क्रियया कर्मणा य आहारादिरुत्पद्यते स धात्रीनामोत्पादनदोषः। वाल स्नापयानेन प्रकारेण बाल.
प्रस्तुत मोक्षमार्गप्रकाशक की यथार्थ परिस्थिति क्या स्नाप्यते येन मुखी नीरोगी च भवतीत्येवम्, माजननिमित्त
है, यह जानने की चकि कुछ सज्जनों ने अपेक्षा की थी, वा कर्म गृहस्थाय उपदिशति । नेन च कर्मणा गृहस्थो दानाय
३ यथा पूज्य जिनेन्द्राणा रूप नेपादिनिमितम् । प्रवर्तते । तद्दानं यदि गृह्णाति साधुस्तस्य धात्रीनामोत्पादन
तया पूर्वमुनिच्छाया पूज्या: मंप्रति सयताः ।। दोषः........... (मूला. वसु. वृत्ति ६.२८)
(उपास. ७६७) २ उग्गम उप्पादण एमण च सजोजणं पमाण च ।
विन्यम्यदयुगीनष प्रतिमासु जिनानिव । इगाल धूम कारण अद्वविहा पिंडमुद्धी दु॥
भक्त्या पूर्वमुनीनचेत् कुतः श्रेयोऽतिचिमाम् ॥ (मूला. ६-२)
(सा. ध २-६४) १६ उद्गम दोष (६, ३-२५), १६ उत्पादन दोष ४ देखिये पद्मपुगण पर्व ६२ श्लोक १५-३७ । (६, २६-४२), १० एषण (अशन) दोष (६, ४३-६२) ५ मत्रमप्यनुकम्प्यानां मृजेदनुजिघृक्षया । तथा संयोजन आदि ५ अन्य दोष; इन सब दोपों की यहाँ चिकित्साशालवद् दुष्यन्नेज्याय वाटिकाग्रपि । विस्तार से प्ररूपणा की गई है।
(सा. घ. २-४०
लामो पुरुषनिको न्यादि बनायो