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अनेकान्त
कुमार अवस्था में ही श्रमण दीक्षा धारण की थी। अस्तु- परपरा अनेकेश्वर तथा अनेकान्त के साथ तप मे, श्रम से स्वयं शकटायन थमण संघ के प्राचार्य थे
जिसकी मूल संगति प्राचार (सम्यक चारित्र) के साथ है, "महाश्रमण संघाधिपतियः शाकटायनः।"
मोक्ष मानती है। यही इनका शाश्वतिक विरोध है। -शाकटायन व्याकरण चिन्तामणि टीका १ वास्तव में तो ज्ञान और क्रिया का एकायन हो मोक्षहेतु प्रसिद्ध वयाकरण पाणिनि ने कहा है
है। "ज्ञान क्रियाभ्या मोक्षः" इति सर्वज्ञोपदेशः ।। "कुमारः श्रमणादिभिः" (अष्टाध्यायी २-१-७०)
-मूत्रार्थ मुक्तावली ४५ येषां च विरोषः शाश्वतिकः इत्यस्यावकाशः श्रमण
ब्राह्मणा भुंजते नित्यं नाथवन्तश्च भुजते । ब्राह्मणम्।" -पातंजल महाभाप्य ३-४-६
तापसा भुजते चापि श्रमणाश्चैव भजते पाणिनि के इस सूत्र का यह उदाहरण है। जिनका
बाल्मीकि रामायण वा० १११२ शाश्वत विरोध है, यह सूत्र का अर्थ है । यहा जो विरोध वहा नित्य प्रति बहुत मे ब्राह्यण, नायवन्त, नपस्वी शाश्वतिक बनाया है, वह किसी हेतु विशेष से उत्पन्न और 'श्रमण भोजन करते थे। नही हया । शाश्वतिक विरोध मैद्धान्तिक ही हो सकता है "मोहनजोदगंसे उपलब्ध ध्यानस्थ योगियांकी मतियोंकी गयोंकि किमी निमित्त से पैदा होने वाला विरोध उस प्राप्ति में जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है। निमित्त के दूर होने पर समाप्त हो जाता है। वैदिक, युग मे व्रात्यो और श्रमण-ज्ञानियों की परम्परा परन्तु महर्षि के "शाश्वतिक" पद से यह सिद्ध होता है का प्रतिनिधित्व भी जैनधर्म ने ही किया। धर्म, दर्शन, कि श्रमणों और ब्राह्मणों का कोई विरोध है, जो शाश्व- संस्कृति और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास मे जनतिक है। इस आशय से हम इस निर्णय पर पहुंच धर्म का विशेष योग रहा है।" सकते है कि ब्राह्मण वैदिक धारा का प्रतिनिधित्व करते
-श्री वाचस्पति गैरोला, प्रयाग हा, एकेश्वरवाद तथा ज्ञान से मुक्ति मानते हैं तथा श्रमण
भारतीय दर्शन प० ६३
कविवर देवीदास का पदपंकत डा० भागचन्द जैन, प्राचार्य, एम. ए., पो-एच. डो.
जैसा मैंने पिछले अंक में लिखा था, कविवर देवीदास प्रारम्भ भी टेक से ही हया है जिम सापुनयम कीती के दो ग्रन्थ परमानन्द विलास और पदपंकत लिपिकार कहा है। श्री ५० प्रागदास तिवारी के द्वारा एक ही ग्रन्थ में संग्रहीत नाभिनन्दन चरन सेवहु नाभिनन्दन चरन । कर दिये गये है। उन्होने ४८वे पृष्ठ पर परमानन्द तीन लोक मंझार सांचे देव तारन तरन ॥टेक।। विलास की समाप्ति की घोषणा कर दी और तुरन्त ही धनुष से तन पांच सोभित विमल कंचन बरन । उसी पृष्ठ पर पदपंकत का लेखन प्रारम्भ कर दिया। कामदेव सो कोट लाजोट रवि छवि हरन ॥ से०१॥ परमानन्द विलास की तरह यह ग्रन्थ भी कवि की विभिन्न भक्तिवंत सोपुर घतिनके सत श्वेताकरन । कालो में की गई रचनायो का संग्रह मात्र है। परन्तु ऊच गति कुल गोत उत्तिम लहत उमि वरन ॥से०२॥ काल की इस विभिन्नता से काव्य में किसी भी प्रकार की मान कर भव भय सुभवन जन मान लेत सो सरन । विरसता अथवा प्रवाहहीनता नही आ पायो।
देवीदास सो देत पनी युक्त तरवर जन ।। सेवहु ३॥ प्रायः समूचे ग्रन्थ में टेकों का उपयोग किया गया है। परमानन्द विलास में जो भाव और भाषा का गांभीर्य