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श्रमण संस्कृति का प्राचीनत्व
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(पृष्ठ ७२ का शेपारा)
रहित, जरारहित और उत्क्षेपण-अवक्षेपण गतियुक्त हो। -चूंकि युग के आदि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव ने इस किन्च आप भेदक (भेद विज्ञानी) किन्तु दूसरों से भेदन न |कार कर्मयुग का प्रारम्भ किया था, इसलिये पुराण के किये जा सकने वाले, बलवान, तृष्णारहित् पौर निर्मोह जाननेवाले उन्हें कृतयुग के नाम से जानते है । कुतकृत्य हों। भगवान् ऋषभदेव पाषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा विशेष-जिम चारित्रसे श्रमण कहलाता है, उससे मुक्त कि दिन कृतयुग का प्रारम्भ कर प्रजापति कहलाये। अर्थात् प्रात्मस्त होने पर वह प्रश्रमण कहलाता है । शिथि
ऋषभदेव ने जैन मान्यतानुसार कर्म की तरह धर्म लाचार रहित एवं मृत्यु, भय, बुढ़ापा, तृष्णा और लोभ का भी प्रचलन और उपदेश किया। उस समय कृतयुग से रहित कोई भी श्रमण तपस्वी अन्तर्मुहुर्त से अधिक काल था, जिसमें लोगों की प्रवृत्ति धर्म की ओर थी। जैन श्रमण प्रात्म-ध्यान के बिना नहीं रह सकता अर्थात् छठा'मुनियों का सर्वत्र विहार था। यही बात भागवतकार
सातवां गुण स्थान बदला करता है। किच ( प्रभविष्णव. कहते है । भागवत के उपर्युक्न श्लोको में "प्रायश." गब्द ।
उत्क्षेपणावक्षेपण गत्युपेता) बार बार ऊपर नीचे गुणस्थान विशेष उल्लेख योग्य है। उसका आशय यही है कि अधि
में चढ़ता उतरता रहता है । तथा निर्मोही, निम्पृह, दुखों काग श्रमणों में ये गुण पाये जाने थे। प्राय सभी श्रमणी पौर सगयों मे रहित, इन सब में बलवान होने से वह का जीवन निष्पाप था। इसी प्रकार ऋषभदेव-काल की प्रादर योग्य और मबसे भिन्न होता है। जनता के प्राचार-विचारो के सम्बन्ध में दोनो परम्परा
श्रमण शब्द का अधिक महत्व रहा है। वैयाकरण
अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में ही किसी शब्द विशेष के लिए ब्रह्मोपनिषद् में भी पर ब्रह्म का अनुभव करनेवाल नियम बनाने है, अन्यथा नही। किन्तु श्रमण शब्द के की दशा का जो वर्णन पाया है, उममे भी पहले कहे हुए मम्बन्ध मे व्याकरण ग्रन्थों में विशेष नियम उपलब्ध होता प्राशय की पुष्टि होती है
है । सर्वप्रथम शाकटायन ने ऐसा नियम बनाया है"श्रमणो न श्रमणस्तापसो न तापसः एकमेव तत् पर
"कुमारः श्रमणादिना"-शाकटायन २-१-७८ ब्रह्म विभाति निर्वाणम् ।" -ब्रह्मोपनिषद्पृ० १५१
श्रमण शब्द के साथ कुमार और कुमारी शब्द की चतुर्थ संस्करण निर्णयसागर प्रेम। श्रमण शब्द सर्व प्रथम ऋग्वेदके दशम मण्डल में उप
सिद्धि विषयक यह सूत्र है । उस काल में "कुमार श्रमणा" लब्ध होता है। इस ऋचा में भी वृहदारण्यकोपनिषद् की
जैसे पदलोक प्रचलित थे। यह शब्द मजा उस वापसी के
लिए प्रचलित थी। जो कुमारी अवस्था में श्रमणा तरह ध्यान को उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया गया है--
(प्रायिका) बन जाती थी। “भमणादि गणपाठ" के दिला प्रतृदिलासो प्रयोऽश्रमणा प्रभृथिता प्रमृत्यवः ।।
अन्तर्गत कुमार प्रवजिता, कुमार तापसी जैसे निष्पन्न मनातुरा अजराः स्थामविष्णवः सुपविसो प्रतृषिता प्रतृष्णजः ।।
शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस समय कुमारियां -ऋग्वेद १०८।१४।११
प्रव्रज्या ग्रहण करती थी, यह लोक विश्रुत था। भगवान् (सायण )-प्रश्रमणाः श्रमणवर्जिताः प्रथिताः
ऋपभदेव की ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने कुमारी अन्यरशिथिलीकृता अमृत्यवः अमारिताः अनातुराः प्ररोगा'
अवस्था में ही श्रमणपद ग्रहण किया था। विवाह के लिए अजराः जरारहिता. स्थभवथ । किञ्च प्रभविष्णवः उत्क्षेप
समृद्यत गजीमती भी नेमिनाथ द्वारा दीक्षा लेने पर श्रमण गावक्षेपणगत्युपेता. हे आवाण : तृदिला: अन्येषा भेदका.
(प्रायिका) बन गई थी। तीर्थकर नेमि-पावं, वीग्ने भी अतृदिलास स्वयमन्येनाभिन्नाः सुपविम मुबला · अतृपिना तृषा रहिता. अतृष्णजः निःस्पृहा भवथ ।
१ भरतम्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात् । हे आदरणीय ! प्रश्रमण प्राप श्रमण रहित, दूमरो के गणिनी पदमार्याणां मा भेजे पूजितामर. ॥ द्वारा शिथिल न किये जा सकने वाले, मृत्युवजित, रोग
-महापुराण २४-१७५