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कविवर देवोदास का पदपंकक
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दिखाई देता है वह पदपंकत में नहीं मिलता। वहाँ जैसा द्वितीय ग्रन्ध परमानन्दविलास की प्रति मे अवश्य अन्तर विषयवार विवेचन है वह भी यहाँ नहीं। इसका मुख्य दिखाई देता है। शास्त्रीजी ने जिस प्रति का उल्लेख किया कारण शायद यह हो सकता है कि कवि की ये फुटकर है उसमे उन्हें कुल २४ रचनाओं का संग्रह मिला था। रचनाएं है। बीच में जहाँ कहीं रचनाकाल भी दिया गया और मैने जिस प्रति का उल्लेख किया है उसमे २८ रचहै । जैसे पृ० ५८ पर सं० १८२४ जेठ वदी ५ लिखा है। नानों का संकलन है। मीतलाष्टक, सरधान पच्चीसी, इसके बाद संवत् ४३ लिखा है जो १८४३ का संक्षिप्त कपायावलोकन गच्चीमी और पचमकाल की विपरीत रूप होगा। पृ०७८ पर एक रचना के बाद सवत् १८७ रीति ये चार विपय अधिक है। इसके अतिरिक्त पद्य लिखा है । लिपिकार की भूल मे इमका अन्तिम अक छूट सम्या में भी अन्नर है। कविका तृतीय ग्रन्थ पदपंकत है, गया जान पड़ता है। परन्तु यह तो निश्चित किया ही जो शायद अभी तक अपरिचित रहा है। इनके अतिरिक्त जा सकता है कि यह काल संवत् १८७१ से १८७६ तक कवि के और भी ग्रन्थ होगे जो किन्ही मन्दिरी मोर कोई भी होगा। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता भण्डारों में अभी भी किसी शोधक की गह देखते होंगे। है कि कविवर देवीदाम सवत् १८८० तक रचनाएं लिखते पदपकन भी कवि की अन्त.पुकार का परिणाम प्रतीत रहे । इसके बाद की उनकी रचना अभी तक कोई नहीं होता है। उसमें उन्होंने रामकली, स्याल, ध्रुपद प्रादिका मिली। परमानन्द विलास के बुद्धि वावनी के अन्तिम उपयोग कर १२४ कविन लिखे हैं। विषय का मंक्षिप्त पद्य में रचनाकाल म० १८१० चैत्रवदी प्रतिपदा गुम्बार विवेचन इस प्रकार है। लिखा है । इसे यदि तीस वर्ष की अवस्था में भी लिग्वा कवि की प्राध्यात्मिक रसिकता "भगतिमह चित देत गया माना जाय तो देवीदाम का स्थितिकाल लगभग सवत् प्रभ तेरी" आदि जैसे पद्यों से स्पष्ट है। निजतत्त्व का १७८० से १८८० नक मिद्ध होगा।
श्रद्धान न होना अथवा अात्मिक शक्ति का प्राभास न होना श्रद्धेय प. परमानन्द जी शास्त्री प्रारम्भ से ही ही मंमार भ्रमण का कारण है। अनन्त काल से विषय प्राकृत अपभ्रश और हिन्दी के प्राचीन कवियों के विपय में वासनाप्री में रमण करते हुए भी जीव को उनसे सन्तोष बहुत लिखते रहे है उन्होंने अनेकान्त के वर्ष ११ किरण नहीं हुआ, इसका कविको बड़ा दुःख और माश्चर्य है -- ७-८ सितम्बर अक्टूबर, १९५२ के अंक में "बुन्देलखण्ड के तु जीय रे निज तत कौन भयो सरपानी। कविवर देवीदाम" नामक शीर्षक से एक लेख लिखा था। काल बहुत भटकत गये तो ये सौज विरानी ॥ टेक॥ उममें उन्होंने कवि के विषय में अनेक प्रचलित किंवदन्तियो मिथ्या मद करकं मतो गुरु सीख न मानी। का उल्लेख किया है जिनको परमानन्द विलास के कवित्री तापं और न दूसरी जग माहि प्रल्हानी ॥१॥ के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है। शास्त्री जी को उम जब जब जिय गति मै गयो अपनी करमानी। ममय कविवर देवीद.म के कुल दो ग्रन्थ मिले थे-- उर अंतर लोचन बिना बरसी न निसानी ॥२॥ चतुविशति जिनगुजा और परमानन्द विलास । पिछले पर परमति रचि ज्यों तज्यौ पावक जुत पानी। अक में मैंने अपने लेख "कविवर देवीदाम का परमानन्द धाय धाय विषयन लग्यो प्रसना न बुझानी। विलास' में कवि के वर्तमान चौबीसी विधानपूजा, परमा- काल के गाल में वमता हुग्रा भी जीव मचत नही नन्द विलास और पदपंकत इन तीन ग्रन्थों का उल्लेख होता । प्राज और कल करते हुए माग जीवन विना धर्म किया था। वर्तमान चौबीमी विधानपूजा वही है जिसका पालन करते हा व्यतीत कर देता है। उल्लेख गास्त्रीजी ने चतुर्विशति जिनपूजा के नाम मे किया
वसत काल के गाल में जगजीव नसंगो। है। शास्त्रीजी ने इस ग्रन्थ के विषय में अधिक नहीं हेय सहज समझ नहीं अथवत दिन ऊंगो ॥टेक।। लिखा और मेरे पास भी इस समय उसकी कोई प्रति नहीं किन-छिन प्रति तन छवि घट दिन पावत नीरौ। इसलिए दोनों प्रतियो में तुलना करना सम्भव नही। जनम मरन लख और को चेतति न सवेरी ॥१॥