Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 309
________________ २४ अनेकान्त पन कारन डोलत फिरी जोवन मद भूलो। का जपन करना, पूजन करना.प्रादि धर्म बताया है । इसके छिन संतोष न मन पर दुष ज्यों चूलौ ॥२॥ बाद जिन वचन का रसायन मान कर प्रत्येक व्यक्ति से विषया रसको लोलुपी गुरु प्रान न झेले। उसके पान करने का आग्रह किया हैकर्म कलंदर वस परौ मरकट सम खेले ॥३॥ जिन वचन रसायन पीज जी। तिन निज गुन साथर गही उर अन्तर जागौ। अमृत तुल स्वाद जाकं विषय सुक्ख बम दो जी। देवीदास सुकाल के बसते वच भागौ ॥४॥ परम प्रतींद्रिय मुख को कारन अनुवभव रस उर भोजंजी ।। आत्मा के स्वरूप का विवेचन निम्न पक्तियों मे जनम जरा मरनो त्रिदोष यह सो स्वयमेव हि छीज जी। देखिए देवीदास करजकर मनको सूरवीर होई दीज जी। मातम तत्व विचारौ सुधी, तुम प्रातम तस्व विचारो। वीतराग परिनामन को करि विकलपता सब डारो॥ कवि ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए परिग्रह की एक सीमा निश्चित की है जिसके पालने वाले को 'बैठे देवीदास भारी सुधी तुम प्रातम तत्त्व विचारो॥टेक॥ घरम जिहाज में" कहा है। दरसन ज्ञान चरनमय चासुर सो निह उर धारी। निज अनुभूति समान चिदानंद हीन अधिक न निहारौ ॥१॥ भम कास स सु एक व्यापार के निमित्त जाय, पांस रुपैया रोक पांचस को गहनौ। सुर दुरगंष हरित पीपरी दुत सेत असन पुन कारौ । तीस मानी नाज चार दुवती बनाव ग्रेह, कोमल कठिन चिकन रूक्ष सु-सव पुद्गल दरव पसारो ॥२॥ भाजन सुमन डेढ सं न और चाहनौ । सीत उसन हलको पन भारी कटु कामल मधुरारौ। ताही जमा म ते वीस चौमना रुई कम, तिकत कसाय लगुन सु अचेतन सो नहि रूप निहारो॥३॥ सिगर गौन नौन चार वारा गौ न लहनौ। श्राप निकट घट माहि बिलोकहु सो सब देखन हारौ। पाठ मन घोऊ मन एक तेल के प्रमान, देवीदास होहि इहि विषि सौ जड़ चेतन निरवारौ ॥४॥ राख ना सिवाय प्राप करके विसहनी ॥१॥ इसके बाद वर्तमान चौबीस तीर्थकरो के नामो को + + + + छन्दोबद्ध करके कवि ने विमलनाथ भगवान की विशेष राख दस पलिंग विछौना वसहि उडोना रूप से स्तुति की है और उसमें भक्तिरस का आकलन दस ही सुगंडुवे सुपंतो दस जाजमै । किया है । उदाहरणतः घोरौ एक महिषो सु दोय गौयें चार वल तुमै प्रभु जू पुकारत हौं। सुहित अपनी विचारत हो। चार ही छेरो एक विसावं सु साजमें ।। करम वैरी सो तुम नास। तुम जब ज्ञान गुन भास। वीस चर जूती दोय दूसरी ना कर जोय धरों निज भक्ति उर तेरी। हरौ अब आपदा मेरी । अदत्ता ना लैहि थूल प्रापनी समाजमैं । तप का महत्त्व मुक्ति प्राप्त करने तक है। तीर्थकर इतनी प्रतिज्ञा करिके सुभवसागरमै बैठे वरह ने तप के ही माहात्म्य से मोक्षपद पाया है। 'देवीदास' भारी धरम जिहाज मैं ॥२॥ "लप सबको हितकारी जगत मै" यह उसकी मुख्य पक्ति + + + + है। धर्मगीता मे "ई भात धर्म सो लागी जी जात घरी कुपरा कोरी वीस ली कर खरीद निदान । जाहा असही' इस टेक के साथ पाठ पद्य है जिनमें कवि रगवावं ना धुवावही वनज हेत दिक थान ।। ने परम्परानुसार धर्म के स्वरूप का चित्रण किया है। लाख लील सन मैन लोह सावन अरसी सौ । सच्चे देव-गुरू-शास्त्र को प्रमाण मानकर चलना, पञ्च सोरा विष हथियार नाज बोघे सुन पीसे । पापादिक से दूर रहकर दयादिक पालना, णमोकार मन्त्र महवा गुली तिलो हेत भंड सार ना गवं ।।

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