Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 296
________________ श्रमण संस्कृति का प्राचीनत्व मुनि श्री विद्यानन्द मंगलाचरण- . सिरि णमो उसह समरणाणं। व्याकरण के अनुसार सस्कृति शब्द का अर्थ है सस्कार सम्पन्नता। संस्कार से वस्तु उत्कृष्ट बन जाती है अथवा कहना चाहिये कि वस्तु सस्कार किये जाने पर अपने में निहित उत्कर्ष को अभिव्यक्त करने का अवसर प्राप्त करती है। संस्कार किये जाने पर ही खनिज सुवर्ण शद्ध म्वर्ण बनता है। मनुष्य भी संस्कृति के द्वारा ही अपने उच्चतम ध्येय और पवित्र संकल्पो को प्राप्त करने के लिए दिशा प्राप्त करता है। एक कलाकार अनगढ़ पाषाण में छेनी हथोड़े की सहायता से वीतराग प्रभु की मुद्रा अकित कर देता है, एक चित्रकार रगो और तूलिका की सहायता से केनवास पर मुन्दर चित्र बना देता है, इसी प्रकार संस्कृति भी मनुष्य के अन्तस्थ सौन्दर्य को प्रकट कर देती है । यही मनुष्यके प्राचार विचार और व्यवहार को बनातीसंवारती है । ये आचार-विचार और व्यवहार ही संस्कृति के मूलस्रोत के साथ सम्बद्ध होकर उसका परिचय देते है। अन. जब हम संस्कृति का सम्बन्ध श्रमण शब्द के रााय करते है, नब हमारे सामने श्रमग धर्म और उसके आचार-विचार स्पष्ट हो उठते है। श्रमग का अर्थ है निर्गन्ध दिगम्बर जैन मुनि । अतः श्रमण-सस्कृति का अर्थ हया वह सस्कृति जिसके प्रवर्तक व प्रस्तोता दिगम्बर जैन मूनि है। इसको और भी स्पष्ट करके कहें तो जिन प्राचार-विचार और आदर्शो का आचरण और उपदेश दिगम्बर जैन मुनियों द्वारा किया गया है, वह श्रमण संस्कृति है। भगवान ऋषमदेव प्रथम दिगम्बर मुनि है, बे ही प्रथम श्रमण है । अतः उनके द्वारा जिन प्राचार-विचारव्यवहार और आदर्शों का पाचरण और उपदेश के द्वारा प्रचार-प्रसार और प्रचलन हुआ, वही संस्कृति श्रमण संस्कृति के नाम से जानी पहचानी जाती है। अब हम श्रमणत्व और उसकी प्राचीनता के बारे में कुछ प्रमाण प्रस्तुन करेंगे। ("नाभेः प्रियचिकोर्षया तदवरोधायने मेरदेव्या धर्मान दर्शयितुकामो वातरशनाना श्रमणानामृषीणामूर्य मंपिना शुक्लया तनुवावतार"" ०२०). महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके अन्त:पुर में महारानी मरुदेवी के गर्भ से 'दिगम्बर श्रमण ऊर्ध्वगामियों का धर्म प्रगट करने के लिए वृषभदेव शुद्ध मत्वमय शरीर से प्रगट हुए। भागवतकार ने आद्य मन स्वायम्भुव के प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ' को दिगम्बर श्रमणों और ऊर्ध्वगामी मुनियों के धर्म का प्रादि प्रतिष्ठाता माना है, उन्होने ही श्रमण धर्म को प्रगट किया था। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमण मुनि बने, भागवत मे यह ही उल्लेख मिलता है "नवाभवन् महाभागा मुमयो हार्यशसिनः। श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्या विशारदाः॥ -लागवत ११।२।२० ऋषभदेव के सौ पुत्रो में से नौ पुत्र बड़े भाग्यवान थे पात्मज्ञान में निपुण थे और परमार्थ के अभिलाषी थे। वे श्रमण-दिगम्बर मुनि हो गये, वे अनशन प्रादि तप करते थे। यहां श्रमग मे अभिप्राय है (श्राम्यति तपः क्लेश १ प्रियव्रतो नाम मुतो मनोः स्वायम्भवस्य यः । तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिः ऋषभस्तत्सुतः स्मृतः ।। ११।२।१५ भागवत पुराण । स्वायम्भुव मनु के प्रियनात नाम के पुत्र थे। प्रियव्रत के अग्नीघ, अग्नीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभदेव हए । वैदिक परम्परा के अनुसार स्वायम्भव मनु मानवों के पाद्य अष्टा और मन्वन्तर परम्परा के प्राद्य प्रवर्तक थे।

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