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अनेकान्त
४ तथा वह कहता है कि-जिन शास्त्रों में अध्यात्म द्रव्यों में न लगे, यदि स्वयमेव उनका जानना हो जाये उपदेश है उनका अभ्यास करना, अन्य शास्त्री के अभ्यास और वहीं रागादिक न करे तो परिणति शद्ध ही है। (सो. से कोई सिद्धि नही है ?
सं० पृ० २१२) उससे कहते हैं-यदि तेरे सच्ची दृष्टि हुई है तो
७ यहाँ कोई निविचारी पुरुष ऐसा कहे कि तुम सभी जैन शास्त्र कार्यकारी हैं। वहां भी मुख्यत: अध्यात्म व्यवहार को असत्यार्थ-हेय कहते हो, तो हम वत, शील, शास्त्रों में तो पात्मस्वरूप का मुख्य कथन है, सो सम्यग्- सयमादिक व्यवहारकार्य किसलिए करे ? सबको छोड़ दृष्टि होनेपर प्रात्मस्वरूप का निर्णय तो हो चुका, तब देगे। तो ज्ञान की निर्मलता के अर्थ व उपयोग को मंद कषायरूप
उमसे कहते है कि--कुछ व्रत, शील, संयमादिक का रखने के अर्थ अन्य शास्त्रों का अभ्यास मुख्य चाहिये।
माम व्यवहार नहीं है, इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है, तथा यात्मस्वरूप का निर्णय हुया है, उसे स्पष्ट रखने के
उसे छोड दे। और ऐमा श्रद्धान कर कि इनको तो बाह्य अर्थ अध्यात्म शास्त्रों का भी अभ्यास चाहिये; परन्तु
सहकारी जान कर उपचार से मोक्षमार्ग कहा है, यह तो अन्य शास्त्रों में अरुचि तो नहीं होना चाहिये। (सो०
परद्रव्याश्रित है, तथा सच्चा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है, पृ० २००-२०१)
वह स्वद्रव्याथित है। इस प्रकार व्यवहार को असत्यार्थ ५ तथा वह पूजनादि कार्य को शुभास्रव जान कर हेय जानना । व्रतादिक के छोडनेमे तो व्यवहार का हेयदेय मानता है, यह सत्य ही है; परन्तु यदि इन कार्यों को पता होता नीति पर foवानिक छोड़ कर शुद्धोपयोग रूप हो तो भला ही है, और विषय- छोड़कर क्या करेगा? यदि हिसादिरूप प्रवर्तेगा तो वहाँ कषाय रूप-अशुभ रूप-प्रवर्तं तो अपना बुरा ही किया। तो मोक्षमार्ग का उपचार भी संभव नहीं है-वहा प्रवर्तने शुभोपयोग से स्वर्गादि हों अथवा भली वासना से या भले
से क्या भला होगा? (मो० पृ० २५३-५४) निमित्त से कर्म के स्थिति-अनुभाग घट जायें तो सम्यकत्वादि को भी प्राप्ति हो जाये। (सो० पृ० २०५) आगे
तथा यदि बाह्य सयम से कूछ सिद्धि न हो तो पृ. २०८ के दूसरे पैराग्राफ को (अब उनसे पूछते है......)
सर्वार्थसिद्धिवामी देव मम्यग्दष्टि बहुत ज्ञानी है, उनके तो
चौथा गुणस्थान होता है और गृहस्थ श्रावक मनुष्यों के और पृ. २०६ के अन्तिम पैराग्राफ को भी देखिए।
पंचम गुणस्थान होता है सो क्या कारण है ? तथा तीर्थ६ फिर वह कहता है-जैसे, जो स्त्री प्रयोजन जान
कगदिक गृहस्थपद छोड़ कर किमलिए सयम ग्रहण करे ? कर पितादिक के घर जाती है तो जाये, विना प्रयोजन जिस-तिस के घर जाना तो योग्य नही है। उसी प्रकार
इसलिए यह नियम है कि बाह्य संयमसाधन विना परिणाम परिणति को प्रयोजन जान कर सात तत्त्वो का विचार
निमल नहीं हो सकते; इसलिए बाह्य साधन का विधान करना, विना प्रयोजन गुणस्थानादिक का विचार करना
जानने के लिये चरणानुयोग का अभ्यास अवश्य करना योग्य नहीं है ?
चाहिये । (सो पृ० २६२) समाधान :-जैसे स्त्री प्रयोजन जानकर पितादिक या (प्रस्तुत संस्करण में जिस प्रकार अध्यात्म के पोषक मित्रादिक के भी घर जाये, उसी प्रकार परिणति तत्त्वों के कुछ वाक्यो को यत्र-तत्र-जैसे पृ० ५१, ५२, ५७ व१५८ विशेष जानने के कारण (कारणभूत) गुणस्थानादिक व प्रादि-काले टाइप में मुद्रित कराया गया है उसी प्रकार कर्मादिक को भी जाने। तथा ऐसा जानना कि-जैसे बाह्य संयम के पोषक उपयुक्त सदोंमें से भी कुछ वाक्यों शीलवती स्त्री उद्यमपूर्वक तो विट पुरुषों के स्थान पर न का मुद्रण यदि काले टाइप मे करा दिया जाता तो बहुत जाये, यदि परवश वहाँ जाना बन जाये, और वहाँ कुशील अच्छा होता ।) सेवन न करे तो स्त्री शीलवती ही है। उसी प्रकार बीतराग परिणति उपायपूर्वक तो रागादिक के कारणभूत पर- १ किसी जीवकरि अपना प्रात्मा ठिग्या । सो कौन ?