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अनेकान्त
समान जान कर उनकी हत्या के लिए मना किया है।" निपट कठिन पर तिय मिलन मिल न पूर होस । बुधजन भी निर्जन वन मे घूमते हुए भूखे-प्यासे तथा मूक लोक लरं नप बंड कर परे महत पुनि बोस ।४६३॥ पशुभों के पेट में छुरी भोंक देने को बुग कहते है
ऊंचा पर लोक न गिन कर पाबा दूर । निरजन वन घन में फिर मरं भूख भय हान ।
मोगुन एक कुसोलतं नास होत गुन भर ४९४॥ देखत ही धुंसत छुरी निरबह प्रथम प्रजान ।४८०॥ वेश्या-मन-शुक्र गुरु", हारीत प्रादि सभी प्राचीन उनका कहना है
नीतिकारो ने वेश्या-प्रेम की बड़ी भर्त्सना की है । गुरू के प्रान पोषना धर्म है, प्रान नासना पाप ।४५४॥ अनुसार शील और परिजनो से परित्यक्त होकर ही वेश्या
दूध, घी, फल प्रादि मिष्ट तथा पौष्टिक पदार्थो को की अभिलापा सतुष्ट की जा सकतो है।" हारीत ने त्याग कर अपने मांस की पुष्टि के लिए अन्य पशुओ का वेश्या-गमन को सुख और धन के क्षय का कारण कहा मास खानेवाले मनुष्यों को बुधजन मधम' की सजा है। बुधजन ने भी वेश्या को सर्वस्वहीनता और दुःख
का मूल बतलाया है। ___मद्य-मद्य एक नशीली वस्तु है । बसुनदि के विचार हीन बीन ते लीन ह सेती अंग मिलाय । से नशे में बेसुधि कारण शरावी अपने अपहृत धन के लिए लेती सरबस संपदा, देती रोग लगाय।४७४॥ भटकता रहता है, उसे निन्दनीय काम करने में भी कोई जे गनिका संग लोन है सर्व तरह से लोन । चूक नहीं होती।" शुक्र के मतानुसार तो नशे में उन्मत्त तिनके कर ते खावना धर्म कर्म सब छीन ।४७५ ॥ कुलीन पुरुप भी अपनी मा के सेवन को भी अनुचित नहीं
उक्त नीति-विषयो के अतिरिक्त बुधजन ने काम-क्रोध मानता ।" मद्यप के शरीर की बेमुधि व उचित-अनचित को निर्लज्जता व अज्ञान का कारण", ममता को दुःख के ज्ञान की न्यूनता के विषय में बुधजन के भी उक्त की नीव", कुसग को प्राणो का नाशक" बतलाकर अग्राह्य नीतिकारो जैसे ही विचार है
कहा है। युवापन, जीवन व धन की क्षण-भगुरता दिखला दारू को मतवात में गोप बात कह देय ।
कर मद की अ-यथार्थता भी प्रमाणित की है। पीछे बाका दुःख सहै नुप सरबस हर लेय ।४७०॥ मागश में कहा जा सकता है कि बुधजन ने जीवनके मतवाला हूंबावला चाल चाल कुचाल ।
विविध विषयो पर जहाँ बसुनदि, हारीत, शक्र, गुरू, जा तं जावं कुगति मै सवा फिर बहाल ।४७१॥
पुत्रक प्रादि प्राचीन नीतिकागे के समान विचार पर-नारी-गमन-भारतीय नीतिकारो मे ऋषि पुत्रक
प्रकट किए है वहाँ उन विषयो को अपनी मौलिक दृष्टि भी ने पर-नारी-गमन का दुप्परिणाम दरिद्रता व अपयश प्रदान की है । 'पद-सग्रह' व 'बुधजन सतसई' मे विवेचित तथा गौतम ऋषि ने दुःख, बन्धन और मरण" कर कर उनको नीति-परक उक्तियां जोवन-पथ पर डगमगाते उसको वजित समझा है। कवि बुधजन भी उसे गुण, मनुष्यो को सर्वदा सम्बल का काम करती रहेगी, प्रत सम्मान तथा यश का विनाशक बतलाकर सदोष ठहराते कवि बुधजन सर्वथा प्रशंसा व कीर्ति के पात्र है ।
३० अनु० सुन्दरलाल शास्त्री : नीतिवाक्यामृत, पृ. ३६५ । २४ उत्तरायण, ६-७ ।
३१ वही, पृ० ३५३ । २५ वही, दो० ४६२ ।
३२ वही, पृ० ४६ । २६ बसुनदि श्रावकाचार, ७३ ।
३३ बुधजन सतसई, दो० ६७२, ६७३ । २७ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री : नीतिवाक्यामृतं पृ० २४४ । ३४ वही, दो० ५४४ ।। २८ 'नीतिवाक्यामृत', पू० ५६ ।
३५ बुधजन सतसई, दो० ३८३ । २६ वही, पृ० ५६।
३६ बुधजन पद-सग्रह, पद १२७ ।