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अनेकान्त
सो.
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प्रयोजनभूत तत्त्वनिका निर्णय करि सके तात ए तत्त्व कहे है (पूर्वमे 'जान' के स्थान मे 'निर्णय भएं' लिखा गया था तत्पश्चात् उसे काटकर 'जान' सशोधन किया गया है, आगे
भी।) ३ सो अपने अभावको ज्ञानी हित कैसे मानेगा? सो आपका अभावको ज्ञान
हित कसे मान ४ तथा ऋषीश्वर भारत में ६ बहुरि भारत विप ३ गणधर ने प्राचारागादिक
बनाये है सो ८ 'बनाये है' के स्थान मे यहाँ
कोई क्रियापद नहीं है ८ अनुमानादिकमे नही आता ४ उन्मानादिकमैं प्राव नाही १७ यदि पाप न होता तो इन्द्रा
दिक क्यों नही मारते ? ३ सो पाप न होता तो क्यो न
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१०६ २२ यह महेश लोकका सहार कैसे
करता है ? (अपने अंगो से ही संहार करता है कि इच्छा होने पर स्वयमेव ही सहार होता है ?) यदि अपने अगो
से संहार करता है १३० २ सो प्रति का कोष्ठकगत पाठ
यहाँ उपलब्ध नहीं होता सो १३ अचेतन हो जाते है १६ 'अचेतन' के स्थानमे वहाँ फो.
'चेतन' है ११५ १५-१६ तथा वे मोक्षमार्ग भक्तियोग मो.
और ज्ञानयोग द्वारा दो प्रकार फो. से प्ररूपित करते है। अब, सो. भक्तियोग द्वारा मोक्षमार्ग कहते है
फो. १३७ ६ यहाँ 'बहुरि मोक्षमार्ग भक्ति
योगज्ञानयोग' दोय प्रकार प्ररूपै सो, है। तहाँ यह लिखकर 'पहिले फो. आगे ज्ञानयोग का निरूपण सो. कर है सो लिपि पीछे याको लिषना' ऐसी सूचना ऊपर फो. की गई है। तदनुसार पहिले ज्ञानयोग का प्रकरण होना सो चाहिए था, तत्पश्चात् भक्ति- फो. योग का । परन्तु सोनगढ़ सो. सस्करणमें इसके विपरीत फो. पहिले भक्तियोगका (पृ. सो. ११५-१८) और तत्पश्चात् (पृ. ११८-२०) ज्ञानयोगका फो.
प्रकरण दिया गया है। १२७ २७ फिर कहोगे-इनको जाने बिना सो.
प्रयोजनभूत तत्त्वों का निर्णय फो. नही कर सकते, इसलिए यह सो. तत्त्व कहे है;
फो. १५५ १ बहुरि कहोगे उनको जाने
फो.
१४८ १७७
१५८
मारे
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२७ तो प्रतिज्ञा भंगका पाप हुश्रा २ तौ प्रतिज्ञा भगका पाप न हुप्रा । ६ अर्थ:८-६ अथ ६ तथा जो इष्ट-अनिष्ट पदार्थ
पाये जाते है १५ बहुरि जो इप्ट अनिष्ट बुद्धि
पाइये है १५ कुगुरु के श्रद्धान सहित
६ कुगुरुका श्रद्धान रहित २४ अधःकर्म दोषों में रत है . अधःकर्म आदि दोपनिविष
रत है
सो.
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१८२ २२३
फो.