Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 283
________________ २५८ अनेकान्त विवेक-आलोक से अज्ञानान्धकार में भूले बटोहियों का पथ विपत मेंटिये मित्र की तन धन खरच मिजाज । प्रशस्त करते रहे है तथा आगे भी करते रहेगे। काहूंबांके बखत में करहै तेरौ काण ॥४५०॥ बघजन जैन-काव्य में सर्वाधिक सम्मानप्राप्त नीति- मखते बोले मिष्ट जो उर में रावं घाल। कार है। इन्होंने यर्याप तत्त्वार्थबोध, योगमार भाषा, मित्र नहीं वह दुष्ट है तुरत त्यागिये भात ॥४५॥ दर्शन पच्चीसी आदि कई ग्रन्थो की रचना की किन्तु नैतिक बुधजन ने यति, लखपति, बालक, जुपारी, चुगलखोर, उद्भावना की दृष्टि से इनके 'पद-सग्रह' और 'बुधजन- चोर तथा नशेवाज व्यक्ति को मित्र बनाना बुरा बतसतसई' दो ग्रन्थ अधिक महत्त्वपूर्ण है। 'पद-सग्रह' में लाया है। विभिन्न राग-रागिनियो मे २४३ पद है। 'बुधजन-सतसई' विद्या-परम्परागत नीनिकारो की तरह बुधजन भी में 'देवानुगग शतक' सुभापित नीति, उपदेशान्धकार तथा विद्या को खर्च करने से वढनेवाला एवं अमूल्य धन तथा विगग-भावना चार विभागो मे ६६५ दोहे है। बुधजन ने । सम्मानदात्री वस्तु मानते है। उन्होने विद्यार्थी के अल्प दया, मित्र, विद्या, सतोष, धैर्य, कर्म-फल, मद, समता, भोजन व वस्त्र; कम निद्रा; आलस्य का परित्याग कर लोभ, धन व्यय वचन, द्यूत, मास, मद्य, पर-नारी-गमन, विद्या-चिन्तन करते रहना तथा खेल-तमाशे से दूर रहना वेश्या गमन, स्त्री आदि विषयो पर नीतिपरक उक्तिया चार लक्षण बतलाए हैकही है। प्रलप वसन निद्रा अलप ख्याल न देष कोर। ___ 'दया-नीतिकार नारद ने क्षुद्रतम जीवो की भी पालस तजि घोखत रहै विधारथी सोइ ॥४३३॥ पुत्रवत् रक्षा अनिवार्य एव सर्वोत्तम बतला कर दया का राजपुत्र के अनुमार विद्या की सार्थकता के लिए नदबडा महत्व दिया है।' बुधजन भी दया को पट्दर्शनो का नुकूल आचरण करना व्यक्ति का धर्म है। यही बुधजन सार तथा समस्त जप, तप की सार्थकता के लिए अनिवार्य कहते हैमानते है। उन्होने दयालु व्यक्ति को अपना निकटतम जो पढ़ि कर न पाचरण नहिं कर सरधान । व परम हितपी तथा मन-वचन-काया से वन्दनीय समझा ताको भणिवो बोलिवो काग वचन परमान ।४३१॥ मित्र-- जैमिनि ने सुख-दुख मे समान स्नेह करनेवाले संतोष-अपनी विविध अभिलपित वस्तुओं को साथी को मित्र कहा है। बुधजन मित्र के सम स्नेह से ही अप्राप्य देख कर दु.खी न होना तथा अपनी वर्तमान स्थिति सतुष्ट नहीं हो जातं अपितु सूख-दु.ख मे उसका सम्यक मे ही प्रमन्न रहना सतोष कहलाता है । सतोप न होने परामर्श भी चाहते है। उनकी दृष्टि में मित्र का परामर्श देने का मूल कारण तृष्णा है। मुन्दर कवि ने तृष्णा को बिगडे कामो को सुधारनेवाला, अनीति और व्यसनो से दुःख व सतोष को सुख का कारण कहा है। यही बुधजन बचानेवाला तथा सशयों को दूर करनेवाला होता है। की भी धारणा है।" बधजन सर्व बाघापो से अच्छे मित्र की सहायता तथा शोक कोई विपत्ति आ जाने पर दुःखी रहना शोक कुमित्र के परित्याग का उपदेश देते है : है। शोक को भारद्वाज ने शरीर-शोषक तथा कौशिक ने १ पं० मुन्दरलाल शास्त्री द्वारा अनूदित नीति वाक्यामृत ६ वही, दो० ४४७ । पृ० १७॥ ७ वही, दो० ४२७, ४२४ । २ बुधजन पद-सग्रह, पद १७४ । ८ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री, नीतिवाक्यामृतम् पृ० ३० । ३ दुधजन सतसई, दो० १६४ तथा बुधजन पद-सग्रह, गगाराम गर्ग : 'तुलसी का नीति-दर्शन' को पाण्डपद १७४। लिपि, पृ० ४१ । ४ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री, नीति वाक्यामृत, पृ. ३०३। १० अनु० सु० लाल शास्त्री : नीतिवाक्यामृतं, पृ० ३४५। ५ बुधजन सतसई, दो० ४३६, ४४१, ४४२ । ११ बुधजन पद-संग्रह, पृ० ५२ ।

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