Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 281
________________ २५६ अनेकान्त चित वैध हैं। इन कथनी को कथचित वैध कहना अनिश्चय तुरन्त उसके अाधारभूत मूल्य में जाना पडेगा और देखना का द्योतक कहाँ हुआ? इस कथचितता मे तो यह दृढ होगा, कि उक्त निष्कर्ष अपने आधार से वैध रूपेण निगनिश्चय निहित है कि अपने-अपने आधार की दृष्ट्या मित हुआ है। वैधता इस प्रकार उपादेयता को निर्णायिक प्रत्येक निष्कर्ष निश्चयपूर्वक सत्य है। इस प्रकार बंधता है। दोनो नत्व महजात है। हिसादि धर्म उपादेय है; सापेक्षता का उपसिद्धान्त (Corollary) है। कोई वैध क्योकि व निर्वाण नामक मूल्य में वैध रूपेण निगमित है वाक्य निरपेक्ष रीति से प्रकट किया ही नहीं जा सकता। किन्त हिमादि को उपादेय उम हालत में नहीं कहगे जब साथ ही साथ कोई भी निरपेक्ष रीति से कथित वाक्य तितके मद में रखा जाएगा। गा.विजय के किसी दूसरे वाक्यकी वैधता, चाहे वह कितना ही विरोधी आधारसे वैधरूपेण हिमा को ही निगमित किया जा सकता क्यो न लगे, बाधित नही कर मकता, क्योकि निरपेक्ष है । अतः उपादेयता के लिए दो पूर्वापेक्षाएं आवश्यक है। रामपाले रीति के वाक्य तर्कबुद्धि से अनुगत नही होते, बल्कि पहली-मल्यगत सदर्भ और दमरो मदर्भ से निगमित किमी प्रास्था के विषय होते है, जो वैध और अवैध की निष्कर्ष की सगाँन । प्रस्त. उपादेयता स्याद्वाद का विषय कोटि मे नही पाते । सार रूप में, वध कथन वह है जो और उसमे कोई प्रनिटिजनता नटी । म्याटाट प्रत्येक अपने प्राधार से मगत हो और अवैध बह, जो अपने प्राचारिक कृत्य का ताकिक प्राधार है। वह प्रत्येक कृत्य सामान माघार से सगत न हो। 'गाँधी मग्णशील है' वाक्य अपने का, चाहे वह कितना ही माधारण क्यों न हो, विवेक या माघार की दृष्टया वैध है तथा अन्य प्राधागं की अपेक्षा 'क्यो' प्रस्तुत करता है। व्यक्ति उपवास करना है; भक्ति अवैध । ऐसे ही अन्य निष्कर्ष-वाक्यो के बारे में भी । इम करता है, उपासना करता है, आदि आदि स्याद्वाद उन प्रकार एक ही कथन कथचित असन्य भी। यही स्याद्वाद सभी पर पहले प्रश्न चिह्न खीचना है कि यह क्यो ? सिद्धान्त का आशय है। उत्तर में धार्मिक अन करण कहता है, कि यह सब मोक्ष इस प्रकार वैधता शुद्ध रूपेण वैचारिक मगति का के लिए । तो फिर म्याद्वाद विवेक का रचनात्मक स्वरूप अभिज्ञान है । एक निर्णय में दूसरे निणय का गीतबद्ध प्रस्तुत करता है, कि क्या यह मारे क्रियाकलाप मोक्ष से निगमन वैधता का प्रकाशन है। वैधता का क्षेत्र प्रत्यय वैधरूपेण मगत है ? तब प्रत्येक कार्य की वैधता निर्णीन जगत है । उपादेयता वैधता के क्षेत्र मे कुछ विलग पडती कर वह उसे मुल्य मापेक्ष और उपादेय घोषित कर देता है। उपादेयता का क्षेत्र मूल्य-जगत मे है । मूल्य जीवन- है। इस घोषणा में कहाँ अनिश्चितता है और कहाँ अनुपाव्यष्टि और समष्टि दोनो, की वह मापेक्ष वस्तुस्थिति है देयता - यह समझ में नही पाना । जो काम्य है। इमी काम्य वस्तुस्थिति की मापेक्षता में - कुछ का विचार है कि धर्म और प्राचार के लिए एक उपादेयता का निर्णय होता है। जैसे निर्वाण एक मूल्य, निश्चित और अपरिवर्तनीय दर्शन की आवश्यकता होती शायद चरम मूल्य है। निर्वाण की वस्तुस्थिति कामना का है। उसे चाहे ताकिक दप्टि मे निरपेक्ष कहा जाए या चरम अधिकरण है। उस निर्वाण की दिशा में प्रवर्तित , एकान्त, धर्म प्रवर्तन मे है उमीकी आवश्यकता । जैन दार्शयदि कोई कार्य-व्यापार है, तो उसे उपादेय कहा जाएगा। निको का यहाँ कुछ मतभेद है। उनकी निगाह मे कोई धार्मिक चारित्र उक्त मूल्य का सवाहक है । अन वह निरपेक्ष (Absolute) कथन बुद्धि मम्मत नहीं हो उपादेय है । इसी प्रकार उपादेयता की अनेक कोटियाँ बन मकता । वह केवल किमी अनुभूति की ही अभिव्यक्ति हो जाती हैं, क्योंकि मूल्यों की अनेकानेक कोटियाँ है । कहने सकती है। जैसे कि यदि हम 'गॉधी मरणशील है' वाक्य का तात्पर्य यह है कि उपादेयता मूल्य-सापेक्ष है। बिना किमी आधार का सदर्भ लिए व्यक्त करे, तो यह उपादेयता इस प्रकार एक निष्कर्ष है जो मूल्यों के किसी व्यक्ति या समूह की अनुभूति का ही बिषय होगा। आधार से निगमित होता है । कोनसा कार्य-व्यापार उपा- इसे वैध या अवैध नही कहा जा सकता। वैध यह तभी देय है-यह निरपेक्ष रीति से तय नहीं हो सकता । हमे होगा, जब इसे 'सब मनुष्य मरणशील हैं, प्रादि वाक्यो

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