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अग्रवालों का जन संस्कृति में योगरान
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कविने अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है- भारत वर्ष मंझार, देश पंजाब सुविस्तृत । ता मध दिल्ली जिला, सकल जनको प्रानंदकृत ।। ताके उत्तर मध्य नगर सुनपत भयभंजन । ता मष चार जिनेश भवन भविजन मन रंजन ॥ तिस नगर वास मम वास है मिहरचंद मम नाम वर हूं पंडित मथुरादास को, लघुभ्राता लघु ज्ञान पर।
इससे कवि मेहरचन्द की काव्य-कला का सहज ही पता चला जाता है।
तीसवें विद्वान कवि ह. गुलाल जी है। जो खतौली जिला मुजफ्फरनगर के निवासी थे। आपके पिता का नाम प्रीतमदास था। उस समय खतौली मे ब्राह्मण विद्वान बालमुकन्द जी थे, जो सस्कृत के अच्छे विद्वान ममझे जाने थे। इनमे ही हरगुलाल जी ने शिक्षा पाई थी। और फारसी का अध्ययन करने के लिए खतौली से मसूरपुर प्रति दिन जाया करते थे। गर्मी, जाडा और वर्षात की उन्होने कभी परवाह नहीं की। वहाँ अरवी फारमी के पाला विद्वान एक शय्यद साहब थे, जो विद्वान सहृदय और सम्पन्न थे। वे हरगुलाल की ज्ञानागवन लगन को देखकर बहुत खुश होते थे। एक दिन उन्होने वर्षा से सराबोर भीगते हुए हरगुलाल को प्राते हुए देखा, तब उन्होने उनसे कह दिया कि अब आप यहाँ न पाया करे, आपको बहुत तकलीफ होती है, मै स्वय खतौली पाकर पापको अध्ययन कराया करूंगा। चुनाचे वे खतौली पाकर उन्हें पढाते थे। कुछ समय बाद वे उस भाषा के निष्णात विद्वान बन गये। जैन शास्त्रो के अध्ययन मे उन्होने विशेष परिश्रम किया था, और अच्छी जानकारी हामिल कर ली थी। इस तरह से पं० हग्गुलाल अरवी, फारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान हो गए थे । आपकी प्रवचन करने की अच्छी शक्ति थी, साथ में सभा-चतुर भी थे। आप खतौली से सहारनपुर चले गए। उस समय सहारनपुर में राजा हरसुखराय दिल्ली की शैली चलती थी। और वहाँ नन्दलाल, जमुनादास, संतलाल, जो वहाँ के वैश्यो मे प्रधान और प्रतिष्ठित थे, इनके भाई वारुमल जी थे । वहाँ के मन्दिरों में आपका प्रवचन होता था और श्रोताजन मन्त्रमुग्ध हो सुनते थे ।
एक दिन हरगुलाल जी ने वहाँ की सभा में ईश्वरसृष्टिकर्ता पर पूर्वपक्ष के रूप मे ऐसा सम्बद्ध भाषण दिया कि जनसमूह आपकी निर्भीक वक्तृत्व कला और युक्तिबल को सुन कर अत्यन्त प्रभावित हुआ। अन्त में आपने कहा कि कल इस भाषण का उत्तरपक्ष होगा। तब जनता में चर्चा होने लगी कि इस विद्वान ने ईश्वर सृष्टिकर्ता पर इतना महत्त्वपूर्ण भाषण दिया, अब इसके उत्तर पक्ष में कहा ही क्या जा सकता है। इससे हरगुलाल जी के पाडित्य का पता चलता है ।
आपके बनाए हुए अनेक भावपूर्ण पद है। उनमें से एक पद पाठको की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है जिसमे शैली की महत्ता का दिग्दर्शन कराया गया हैसैली के परसाद हमारे जिनमत की प्रतीति उर पाई॥ करणलब्धि बलगह समरसता ले अनंतानंत वहीं छिटकाई। मिथ्याभाव विभाव नश्यो प्रगट्यो मम शान्त भाव सुखदाई।। "
हेय ज्ञेय अरु उपादेय लखि, चखि निज रस भ्रम-भूलि मिटाई। पानमीक अनुभूति विभूति, मिल तत्त्वारथ की रुचि लाई॥२ वीतराग विज्ञान भाव मम, निज परिणति प्रवही मलकाई। भ्रमत अनादि कबहू न तिरियो, तैसे निजनिधि सहज प्रगटाई ॥३ सैली से हितकर बहुते नर, सम्यक्ज्ञान कला उपजाई । पर परिणति हर प्राप प्राप में, पाय लई अपनी ठकुराई ॥४ यास हित न कियो बहुते नर, जनम अमोलक रतन गुमाई । भ्रम हरणी सुख को धरणी, यह 'हर गुलाल' घट मांहि समाई ॥५ आपके सभी पद प्रकाशन के योग्य है।
कवि ने मल्लिषेणाचार्य के सज्जनचित्त वल्लभ ग्रन्थ की एक टीका स०१९०३ मे बनाई है, जो ज्ञानभण्डारी में उपलब्ध होती है। आपका अवसान कब और कहां हुमा, यह अभी ज्ञात नही हुआ।