Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 270
________________ बादामी चालुक्य अभिलेखों में वर्णित जैन सम्प्रदाय तथा आचार्य प्रो. दुर्गाप्रसाद दीक्षित, एम. ए. दक्षिण के उन सजवशो ने जिन्होंने सभी धर्मों को ज्य की सीमानो मे इस संघ के अनुयायियों का बाहुल्य पुष्पित, पल्लवित और फलित होने के लिए समान अवसर था। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते है कि इस सघ दिया, बादामी के चालुक्य गजवश का नाम विशेषोल्ले- विशेष के ही अनुयायियो ने विशेष रूप से इस क्षेत्र में जैन खनीय है । इस राजवश के उपलब्ध अभिलेखो मे करीब धर्म का प्रचार किया था। जैन समुदाय के जो मुनि नग्नता १२ अभिलेखो का सम्बन्ध, येन केन प्रकारेण जैन धर्म मे के ममर्थक थे और उसे ही महावीर का मूल माचार है। इन अभिलेखों में गजपरिवार के सदस्यो तथा अन्य मानते थे वे दिगम्बर कहलाए'। इनका श्वेताम्बरों से व्यक्तियो द्वाग जैन मुनियो तथा संस्थानो को दान देने का वमन्य था। दिगम्बर सम्प्रदाय अपने को जैनो का मूल उल्लेख है । इमी प्रसग मे अनेक जैन सम्प्रदायो, प्राचार्यो समुदाय मानता है फलत: उन्हें ही मूलसघ नाम से जाना नथा विद्वानों का उल्लेख है। इस लघु लेख का उद्देश्य जाता है । विद्वानो के अनुसार मूल सघ नामकरण अधिक बादामी के चालुक्य नरेशों के अभिलेखों मे वणित विभिन्न पुगना नही है । परन्तु नोणमाल के दानपत्र में इस नाम जैन सघ, गण प्राचार्यों तथा मूनियो के विषय मे चर्चा का उल्लेख इसकी प्राचीनता की प्रतिष्ठापना ४थी-पाँचवी करना है। इन अभिलेखो के सूक्ष्म विश्लेषण से यह शताब्दी मे कर देता है। बादामी चालुक्य अभिलेखो मे ध्वनित होता है कि इस राजवश के दरबार मे जैन इमका उल्लेख इस नामकरण की प्राचीनता का सकेत देते प्राचार्यों और प्रसारको की अच्छी प्रतिष्ठा थी । इतिहास हए इस तथ्य को प्रकाशित करता है कि यह नामकरण प्रसिद्ध ऐहोल प्रशास्ति' का लेखक रविकीत्ति, जो जैन उतना अर्वाचीन नही है जैसी कि कुछ विद्वानो की धारणा धर्मावलम्बी था, सम्भवत: चालुक्यो के राजनैतिक अधि- है। "अपने से अतिरिक्त दूसरो को अमूल-जिनका कोई कारियो मे से था। ऐहोल प्रशस्ति मे उसके द्वारा राज- मूल ग्राधार नही-बतलाने के लिए ही यह नामकरण नैतिक घटनामो का क्रमबद्ध एवम् चित्रात्मक वर्णन इम किया गया होगा।" इस सदर्भ मे इतना कहना ही पर्याप्त सम्भावना की पुष्टि करता है। जिन जैन मूचनामो का होगा कि अाज हम मूल सघ का जो अर्थ बताकर उसके इन अभिलेखों मे वर्णन है उन्ही का क्रमबद्ध विवेचन निम्न उद्देश्य को स्पष्ट करते है वह अवश्य अर्वाचीन लगता है पक्तियो मे प्रस्तुत है। परन्तु म्वय मूलसघ नामकरण से किसी प्रकार की प्रामूलसंघ :-प्रायः बादामी चालुक्य राजवश के सभी चीनता का आभास नहीं मिलता है। उसे प्राचीन मानने से अभिलेखों मे (जैन धर्म से सम्बन्धित) मूलसघ से सम्ब- किसी प्रकार से साक्ष्य सम्बन्धी भी कोई कठिनाई दृष्टिन्धित जैन मुनियो का उल्लेख है। केवल कुरताकोटि से गोचर नहीं होती है। प्राप्त एक अभिलेख में एक अन्य संघ का उल्लेख है। सभी - ३. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ० २८६-३०३ । चालुक्य जैन अभिलेखो में केवल मूलसंघ के अनुयायियों का एवम् जैन साहित्य तथा इतिहास पृ० ४८५ । उल्लेख इस बात का द्योतक है कि बादामी चालुक्य माम्रा ४. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ० २८१-३०३ एवम् १. एपीग्राफिया इण्डिका जिल्द ६ पृष्ठ १-१२ । जैन साहित्य तथा इतिहास पृ० ४८५ । २. इण्डियन एन्टिक्वेरी जिल्द ७ पृ. २१७-२० । ५. जैन शिलालेख सग्रह भाग २ पृ. ६०-६१ ।

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