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अनेकन्त
अल्तेम से प्राप्त चालुक्य ताम्रपत्र में मूलगण का अभिलेखो में पाया है। इस मन्दर्भ मे देवगण को प्रधानता उल्लेख है।' इस अभिलेख में मूलगण परम्पग रूपी वृक्ष मिली है । यद्यपि इस सन्दर्भ मे एकाध स्थानीय गणों का को कनकोपल पर्वत पर उत्पन्न बताया गया है।
भी उल्लेख है। विशेष महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन "कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगुगान्वये।
अभिलेखो मे गच्छों का उल्लेख नहीं मिलता है। भूतस्समप्रशद्धान्तस्सिद्धन्दि मुनीश्वरः ॥"
बेवगण :- लक्ष्मेश्वर से प्राप्त बादामी चालुक्य जैन श्री राईस ने इस पर्वत की पहिचान मैसूर के चामराज अभिलेखों में मुलसघ की शाखा के रूप मे इस गण का नगर तालुका में स्थित मलेयूम पर्वत में की है। कुछ उल्लेख है । लक्ष्मेश्वर से प्राप्त अधिकाश चालुक्य अन्य अभिलेखो मे इसे कनकगिरि कहा गया है । एक अभिलेखो को पलीट तथा अन्य कुछ विद्वानो ने जाली अन्य अभिलेख मे इसे कनकाचल भी कहा गया है। अलेम कगर दिया है परन्तु इस तथ्य से मुख मोड़ा नही जा अभिलेख की सत्यता के विषय में विद्वानों में मतभेद है।" सकता है कि इसमे उल्लिखित संघ सप्रदाय तथा अन्य परन्त इग अभिनन में वणित मूलगण का तात्पर्य मूल-मध जैनधर्म सम्बन्धी मामग्री की प्रामाणिकता अन्य आधारो से है अथवा किसी अन्य प्राचीन जैन सम्प्रदाय मे यह कहना पर निश्चित है। हाल ही में कुछ विद्वानो ने यह मत कठिन है। सम्भव है कि गण शब्द संघ के लिए त्रुटि हो। व्यक्त किया है कि लक्ष्मेश्वर के अभिलेख केवल प्राचीन
बसुरिसंघ : -कुरताकोटि से प्राप्त अभिलेख में इस ताम्रपत्रो की पापाणो पर प्रति लिपियां हे तथा उनकी संघ का उल्लेख है। इस संघ के एक व्यक्ति विशर्मा का मत्यता को सकिन दृष्टि से नही देखा है। अत: इन अभिलेख में उल्लेख है, जो मामवेद पारगत माववशर्मा का अभिलेखों में प्राप्त सामग्री प्रामाणिक प्रतीत होती है। पौत्र तथा जयशर्मा का पुत्र था। उसे अगस्थि (स्त्य) गोत्र आचार्य दन्द्रनन्दि ने अपने 'श्रुतावतार' में प्राचार्य अहंद(गात्र) का बताया गया है" । उपलब्ध जैन माहिन्य बलि का उल्लेख किया है और उन्ही के दाग अशोक सामग्री में इस प्रकार के किमी मघ का उल्लेख नही वाटिका से पाये जैन मुनियो मे कुछ को 'अपगजित' तथा मिलता है। गोत्र तथा सामवेद का नाम के साथ उल्लेख कुछ को "देव" नाम से अभिहित किया है। इन्ही मुनियो इस मप के जैन न होने का मन करता है परन्तु मामवेद के गिप्य प्रमिप्य तथा अनुयायी देवगण मे सम्बन्धित और गोत्र का उल्लेख पितामह के विशेषणा के रूप में है। हग"। इस प्रकार "देवगण" मूलसघ की शाखा मात्र है। सम्भवत कि रविशर्मा के पितामह एवम पूर्वज वैदिक अन्य वृछ विद्वानों का मत है कि अशोक वन से आने वाले धर्मावलम्बी रहे हों परन्त स्वयम् उनकी आस्था जैन मत मुनियों को "देवगण" के अन्तर्गत रखा गया था। में ही रही हो। इस विषय में निश्चित रूप मे कुछ कहना चालुक्य साम्राज्य के धारवाड क्षेत्र मे इस गण के अनुतो कठिन है परन्तु यह सम्भवत. कोई जैन संघ ही था जो यायियों का विशेप वाहुल्य था। जिन जैन आचार्यों अथवा प्रनयायियो के अभाव में विशेष प्रसिद्ध न हो सका। विद्वानो का उल्लेग्व चालुक्य अभिलेखी मे मिलता है उनमे
मूल संघ के कई गणो का भी उल्लेख चालुक्य जन से अधिकाश देवगण शाखा के थे अतएव यह अनमान ६. इ. ए. जि. ७० २०९-२१७ ।
म्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि देवगण शाखा के अनु७ इपीग्राफिका कर्नाटिका जिल्द ४ पृ० १४० ।
यायियो का चालुक्य साम्राज्य में विशेप बोलबाला था। ८ ए. कर्ना० जिल्द ४ Ch. No. १४४, १५०, १५३ पर लूर गण :-अडर से प्राप्तं दो अभिलेखों में इस इत्यादि ।
१२. इ० ए० जिल्द ३० पृ० २१८-२१६ न० ३३,३८ । ९. ए. पी. कर्ना, जिल्द ४ Ch No. १५८ ।
१३ साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स जिल्द २०, (बाम्बे १० इ० ए.जिल्द ७ पृ० २०९-२१७ एवम जिल्द ३० कर्नाटक इन्सक्रिप्सन्स जिल्द ४) भूमिका पृ०७, ८ । पृ. २१८ नं. ३५।
१४. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म"पृ० ३०० । ११. इ. एक जिल्द ७ पृ. २१७-२० ।
१५. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ. ३०१ ।