Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 273
________________ २४ अनेकन्त अल्तेम से प्राप्त चालुक्य ताम्रपत्र में मूलगण का अभिलंग्वो में पाया है। इस मन्दर्भ में देवगण को प्रधानता उल्लेख है। इस अभिलेख में मुलगण परम्पग रूपी वृक्ष मिली है । यद्यपि इस सन्दर्भ मे एकाध स्थानीय गणों का को कनकोपल पर्वत पर उत्पन्न बताया गया है। भी उल्लेख है। विशेष महत्वपूर्ण बात यह है कि इन "कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगुगान्वये । अभिलेखो मे गच्छों का उल्लेख नहीं मिलता है। भूतस्समग्रशसान्तस्सिद्धन्दि मुनीश्वरः ॥" देवगण :- लक्ष्मेश्वर से प्राप्त बादामी चालुक्य जैन श्री राईस ने इस पर्वत की पहिचान मैसूर के चामराज अभिलेखो मे मूलसघ की शाखा के रूप में इस गण का नगर तालुका में स्थित मलेयूरू पर्वत में की है। कुछ उल्लेख है । लक्ष्मेश्वर से प्राप्त अधिकाश चालुक्य अन्य अभिलेखों में इसे कनकगिरि कहा गया है । एक अभिलेखो को पलीट तथा अन्य कुछ विद्वानो ने जाली अन्य अभिलेख मे इसे कनकाचल भी कहा गया है। अल्लेम करार दिया है। परन्तु इस तथ्य से मुख मोडा नहीं जा अभिलेख की सत्यता के विषय में विद्वानो मे मतभेद है।" सकता है कि इसमे उल्लिखित संघ सप्रदाय तथा अन्य परन्तु इम अभिल में वणित मूलगण का तात्पर्य मूल-मध जैनधर्म सम्बन्धी सामग्री की प्रामाणिकता अन्य आधागे से है अथवा किसी अन्य प्राचीन जैन सम्प्रदाय मे यह कहना पर निश्चित है। हाल ही में कुछ विद्वानों ने यह मत कठिन है । सम्भव है कि गण शब्द संघ के लिए त्रुटि हो। बम किया है कि लक्ष्मेश्वर के अभिलेख केवल प्राचीन बसुरिसंघ :-कुरताकोटि से प्राप्त अभिलेख में इस ताम्रपत्रो की पापाणों पर प्रति लिगियों है तथा उनकी संघ का उल्लेख है। इस मघ के एक व्यक्ति रविशर्मा का मत्यता को मशकिन दष्टि से नही देखा है। अत. इन अभिलेख में उल्लेख है, जो मामवेद पारगत माधवशर्मा का अभिलेखों में प्राप्त सामग्री प्रामाणिक प्रतीत होती है । पौत्र तथा जयशर्मा का पुत्र था। उसे अगस्थि (म्त्य गोत्र प्राचार्य इन्द्रनन्दि ने अपने 'श्रुतावतार' में प्राचार्य अर्हद(गात्र) का बताया गया है" । उपलब्ध जैन माहित्य बलि का उल्लेख किया है और उन्ही के दाग अशोक मामग्री में इस प्रकार के किमी गघ का उल्लेख नही वाटिका से पाये जैन मुनियों में कुछ को 'अपगजिन' नथा मिलता है । गोत्र तथा मामवेद का नाम के साथ उल्लेख कुछ को "देव" नाम से अभिहित किया है। इन्ही मुनियो इस सघ के जैन न होने का मन करता है परन्त मामवेद के गिाय प्रशिप्य तथा अनुयायी देवगण से सम्बन्धित और गोत्र का उल्लेख पितामह के विशेषणो के रूप में है। हा" । इस प्रकार "देवगण" मूनसघ की शाखा मात्र है। सम्भवतः कि रविशर्मा के पितामह एवम पूर्वज वैदिक अन्य कुछ विद्वानो का मत है कि अशोक वन से आने वाले धर्मावलम्बी रहे हों परन्त स्वयम उनकी पाम्था जैन मन मुनियों को "देवगण" के अन्तर्गत रखा गया था। में ही रही हो। इस विषय में निश्चित रूप मे कुछ कहना चालुक्य साम्राज्य के धारवाउ क्षेत्र में इस गण के अनुतो कठिन है परन्त यह सम्भवत कोई जन मघ ही था जो यायियों का विशेप वाहुल्य था। जिन जैन प्राचार्यों अथवा अनुयायियो के अभाव में विशेष प्रसिद्ध न हो सका। विद्वानों का उल्लेख चालुक्य अभिलेखी मे मिलता है उनमें मूल सष के कई गणो का भी उल्लेख चालुक्य जैन से अधिकाश देवगण शाखा के ये अतएव यह अनमान ६. इ. ए. जि. ७पृ० २०६-२१७ । स्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि देवगण शाग्वा के अनु७ इपीग्राफिका कनाटिका जिल्द ४ पृ० १४०। यायियो का चालुक्य साम्राज्य में विशेप बोलबाला था। ८ ए. कर्ना० जिल्द ४ Ch. No १४४, १५०, १५३ पर लूर गण :-अडूर से प्राप्त दो अभिलेखों में इस इत्यादि। १२. इ० ए० जिल्द ३० पृ० २१८-२१६ न० ३७, ३८ । ९. ए पी. कर्ना. जिल्द ४ Ch No. १५८ । १३. माउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स जिल्द २०, (बाम्बे १० इ० ए. जिल्द ७ पृ० २०९-२१७ एवम जिल्द ३० कर्नाटक इन्सक्रिप्सन्स जिल्द ४) भूमिका पृ० ७, ८ । पृ. २१८ त० ३५। १४. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ० ३००। ११. ३० ए० जिल्द ७ पृ० २१७-२० । १५. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ. ३०१ ।

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