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बादामी चालुक्य अभिलेखों में वणित जैन सम्प्रदाय तथा प्राचार्य
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गण का उल्लेख मिलता है। अभिलेख में इस प्रकार पुस्तकान्वय उपशाखा के थे। यह अभिलेख लगभग शक का अन्य कोई मूत्र उपलब्ध नही है जिसके आधार पर यह १०४० ई० है। पता लग सके कि यह गण किस सघ से सम्बन्धित था। २ चितकाचार्यः-इन प्राचार्य का उल्लेख भी पल्तेम (प्र)"मासीद विनय नन्दीति परलरगणाग्रणोरिन्द्रभतिरिव" ताम्रपत्र में है । वह प्राचार्य सिद्धनन्दि के शिष्य थे।
तस्यासीत प्रथमश्शिष्यो देवताविनुतकमः । (ब) "किडिप्पोरवपापम परलूराचेदि यदबकि प्रभाचन्द्र
शिष्यः पञ्चशतंयुक्तश्चितकाचार्य संजितः ॥ गुरावपडेदार ।"
अलेम दानपत्र में उनके ५०० शिष्य संख्या का प्रभाचन्द्र नाम के अनेक प्राचार्य हो गये है अतएव
उल्लेख है । उनके विषय में अधिक जानकारी प्रकाशित इम आधार पर गण के विषय में अनुमान लगाना कठिन
मामग्री मे उपलब्ध नही है। है। अभिलेख की लिपि तथा ऐतिहासिक उल्लेख के
३ नागदेव-यह चितकाचार्य के शिष्यों में से थे। आधार पर वह छठी शताब्दी ई० का है। फलन उममे
अल्लेम दानपत्र में उल्लिखित दान के ग्रहणकर्ता जिननन्दि उल्लिखित प्रभाचन्द्र की पहिचान चन्द्रगिरि पर्वत पर उप
आपके ही शिष्य थे। नागदेव नामक एक व्यक्ति का लब्ध लगभग शक ५२२ में उल्लिखित प्रभाचन्द्र से की
उल्लेख महानवमी मण्डप (चन्द्रगिरि पर्वत) स्तम्भलेख जा सकती है। पग्लूरगण मम्भवन एक स्थानीय गण
(शक १०६६) मे है जो किसी राजा का मन्त्री था और था तथा पग्लर चेडिय में रहने वाले जैन मुनि सम्भवत
जैनगुरू नयकीति का शिष्य था। परन्तु यह उपरोक्त परलर गण के ही रहे होगे। इस सन्दर्भ में विशेष मामग्री
नागदेव प्राचार्य नही हो सकते। क्योंकि वह चितकाचार्य उपलब्ध नहीं है। पग्लूग्गण के जैन अनुयायियो का कार्य
के शिष्य थे तथा उनका समय इतने बाद का नहीं हो स्थल भी मम्भवत धारवाड जिले के अन्तर्गन ह. ।।
मकता है। हमके अतिरिक्त इस सन्दर्भ में अधिक जानबादामी-चालुक्य अभिलेखोंमें उल्लिखित जैन प्राचार्य कारी उपलब्ध नही है।
बादामी चालुक्य जैन अभिलेखो में अनेक जन प्राचार्यो ४ जिननन्दि -प्राचार्य जिननन्दि अलक्तक नगर मे गुरुग्रों और पण्डितो का उल्लेख मिलता है। अल्लेम से स्थित त्रिभुवन तिलक जिनालय के अधिष्ठाता थे। आप प्रारत अभिलेख मे चार जैन प्राचार्यों का उल्लेख है जो नागदेव प्राचार्य के शिष्य तथा सेन्द्रक सामन्त सामिया के मूलमघ परम्परा के थे।
विशेष कृपापात्र थे । प्राचार्य जिनन्दि का उल्लेख शिवार्य सिद्धनन्दि-त्रिभूवन तिलक जिनालय जिननन्दि के गुरुत्रो में पाता है। इन्ही के चरणो मे अच्छी तरह • के पूर्व प्राचार्यों के वर्णन मे सर्वप्रथम इन मुनि का उल्लेग्व मूत्र और उनका अर्थ समझकर शिवार्य ने "भगवती
पागधना" की रचना की थी। इस प्राधार पर यह कहा "भूतस्समग्रराद्धान्तस्सिद्धनन्दि मनीश्वरः"
जा सकता है कि जिननन्दि सम्भवत यापनीय सप्रदाय के श्री नपथराम प्रेमी ने इनके यापनोय होने का अनुमान थे और शिवार्य उनके प्रमुख शिष्यो मे रहे होंगे। लगा है। “एरडुकट्ट (चन्द्रगिरि पर्वत पर) वस्ति में ५रामदेवाचार्य- लक्ष्मेश्वर से उपलब्ध शक ६५६ के
पर की मति के सिंहपीठ पर उपलब्ध अभिलेग्व में विक्रमादित्य द्वितीय के पाषाण अभिलेख में इन प्राचार्य शभचन्द्र मनीन्द्र की सिद्धान्त परम्परामो मे एक सिद्धनन्दि का उल्लेख मिलता है। यह मूलसंघ को देवगण शाखा के का उल्लेख है जो सम्भवतः मूलसध के देसिग गण और प्राचार्य थे। इनके शिष्य का नाम जयदेव पण्डित था । १६ इ० ए० जिल्द ११ पृ ६५-७१ एवम कर्नाटक अभि- १९६०शि० सं० भाग १ पृष्ठ १४७-१४८ । लेख भाग १ पृ. ४-८।।
२० जे०शि० सं० भाग १ पृष्ठ ३३ । १७. जैन शिलालेख भाग १ पृ.१-२॥
२१ जैन साहित्य और इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ ६८ । १८ श्री प्रेमी जी, जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ १६७। २२ इ० ए० जि०७ पृ० १०६-७ ।