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साहित्य-समीक्षा
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कलात्मक ज्ञान का परिचायक है। काटन स्ट्रीट कलकत्ता सबके आदर के पात्र थे। के जैन मन्दिर का मकराने एवं कारीगरी के कार्य से मध्यप्रदेश स्थित सरगुजा नामक स्थान पर अपनी सुन्दर रूप देने का भार आपको ही सौपा गया था।
कोलरीज से लौटते समय खडगपुर के निकट २३ दिसम्बर ___ नरेन्द्र सिह जी सिघी अपनी सौजन्यता, सहृदयता, १६७ को ट्रेन में उनका स्वर्गवास हो गया । काल के कोमल स्वभाव, आकर्षक व्यक्तित्व के कारण सबके प्रिय निर्मम हाथो ने अचानक ही जैन समाज से ही नही, भारत थे। समाज सेवा मे अदम्य उत्साह तथा लगन के कारण माता से भी उनका एक लाल रत्न छीन लिया।
साहित्य-समीक्षा
१. पुरदेव भक्ति गंगा-सम्पादक-मुनि श्रीविद्यानन्दजी, ने प्रत्येक युग में जन भाषा को अपनाया है। मुनिश्री का प्रकाशक-धूमीमल विशालचन्द, चावड़ी बाजार, दिल्ली-६, यह प्रयास उसी परम्परा की एक कडी है। दूसरी बात, पृष्ठ सस्या-८६, डिमाई आकार, मूल्य-अमूल्य ।
मध्ययुगीन जैन हिन्दी काव्य का जब तक ग्राज की भाषा उस दिन मेरठ में मुनिश्री ने 'पूरदेव भक्तिगगा' में गद्यात्मक अनुवाद न होगा वह तयुगीन अन्य काव्य पढ़ने के लिए दे दी, इसे में उनका अशीर्वाद मानता ह। के समान न ऑका जा सकेगा। विश्वविद्यालयों और न-जाने क्यों, भक्त न होते हए भी भक्ति माहित्य में मन दूरभाषीयत्रो पर भी अग्राह्य ही होगा, यदि उसका
मता है, फिर वह चाहे जैन परक हो या किसी अन्य तदनुरूप सम्पादन और प्रकाशन न हुया। इस दष्टि से सम्प्रदाय का । कालिज मे आज वर्षो से बी. ए. और मुनिश्री का यह प्रयास समादर-योग्य है । काम वे सस्थाए एम० ए० कक्षामो को भक्ति काव्य पढाते रहने से एक निष्पक्षता से इसको नापे और परखे । दृष्टि बन गई है, जिसे तुलनात्मक भी कहा जा सकता सकलन का आकर्षक भाग है--'भगवान पुरदेव हूँ। मैं सोच पाता हूँ कि भक्ति ही एक ऐसा तीर्थ है जहाँ ऋषभदेव', मुनिश्री का लिखा हुआ 'प्राक्कथन' । इस छोटेसब घागएं समान रूप से आसमाती है। जैन साधु का से निबन्ध का एक-एक वाक्य शोध की शिलामो पर घिस. सर्वसमत्त्वकारी मन भी 'पुरदेव-भक्तिगगा' मे लग सका तो घिस कर रचा गया है। मुनिश्री को मैने सदैव जैन शोध में आश्चर्य नही है।
निमग्न देखा । यह उसी का परिणाम है । भगवान ऋषभयह लधुकाय सकलन ठोस और सक्षिप्त है। इसमे देव ही पुरदेव थे, यह तथ्य ऋग्वेद आदि प्राचीन ग्रथो "कविवर दौलतराम, भूधरदास, जिनहर्ष, भट्टारक रलकीति, और भारतीय पुरतत्त्व के आधार पर प्रमाणित किया गय। यानन्दघन, द्यानत राय,बुधजन, बनारसी दास, भागचन्द, उद्धरण प्रामाणिक और अकाटय है । अनुसन्धान में लगे कुज तथा एक-दो गुर्जर कवियो की रचनाओ को सगृहित साधकों के लिए मुनिश्री ने एक समग्री प्रस्तुत की है, मेरी किया गया है।" रचनाएँ भाव-भीनी है, भक्ति रस की तो दृष्टि मे वह प्रामाणिक है, निप्पक्ष है। निदर्शन ही है। किसी सूर और तुलसी से कम नहीं। प्रकाशन ऐमा मनोमुग्धकारी है कि देखते ही बनता कला पक्ष भी सहज स्वाभाविक है, न कम, न बढ़ । सधा- है। यदि किसी भौतिक अनुपूर्ति का लेशमात्र भी भाव नपा-तुला-सा। कुल मिलाकर सकलन किसी साधक की सन्निहित नही है तो प्रकाशक की यह श्रद्धा अनुशसा-योग्य साधना-सा सतुलित है।
है। अन्य जैन प्रकाशन भी इसी स्तर को अपनाये ऐसा मैं विशेषता है---उसका अनुवाद । हिन्दी तर भाषा- चाहूँगा।
डा० प्रेमसागर जैन भाषी का यह हिन्दी अनुवाद मजा हुआ तो है ही, हिन्दी २. देवागम अपरनाम प्राप्तमीमांसा-मूलकर्ता प्राचार्य विरोध के खोखलेपन का स्पष्टीकरण भी है । जैन साधुओ समन्तभद्र, अनुवादक प० जुगल किशार मुख्तार, प्रस्तावना