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सागारममृत पर इतर आबकाचारों का प्रभाव
२. प्रा. समन्तभद्र को जहाँ मद्य, मांस और मधु के परित्याग के साथ पांच अणुव्रत; ये श्रावक के आठ मूलगुण अभिप्रेत है वहां पं० प्रशाधर मद्य, मास व मधु के त्याग के साथ पांच उदुम्बर फलों के परित्याग रूप प्राठ मूलगुणों को स्वीकार करते है १ ।
३. प्रा. समन्तभद्र सत्याणुव्रत में ऐसे सत्य वचन को भी हैव ही मानते है जो विपत्तिजनक पर के लिये - पीडाप्रद हो परन्तु पं. भाशाघर ऐसे सत्य वचन को हेय मानते हैं जो स्व-पर के लिये कष्टप्रद हो२ ।
४. प्रा. समन्तभद्र को ब्रह्मचर्याणुव्रत के परदारनिवृत्ति और स्वदारसन्तोष ये दोनों ही नाम प्रभीष्ट है । उनका अभिप्राय है कि ब्रह्मचर्याणुव्रती अपनी पत्नी को छोड़ शेष सभी स्त्रियों का परित्यागी होना चाहिए परन्तु प० माशापर उक्त ब्रह्मचर्या को दो भेदों मे भ करते है— स्वदारसन्तोष धौर परदारवर्जन इनमें प्रथम का परिपालक देशसंयम में प्रभ्यस्त नैष्ठिक श्रावक और द्वितीय का परिपालक उस देशसंयम के अभ्यास में संलग्न व्यक्ति होता है३ ।
५. भोगोपभोगपरिमाणव्रत के जो पांच प्रतिचार मा. समन्तभद्र को अभीष्ट है, पं० श्राशाधर तत्त्वार्थ सूत्र का अनुसरण कर उनसे भिन्न ही उन प्रतिचारों का उल्लेख करते है४ |
६. प्रा. समन्तभद्र नियत समय तक पाचो पापो के पूर्णतया त्याग को सामायिक बतलाते हैं । पर पं० श्राशाधर लगभग इसी प्रकार के लक्षण का निर्देश करके५ भी उम सामायिक की सिद्धि के लिए तदाकार जिनप्रतिमा के विषय मे अभिषेक, पूजा, स्तुति और जप के
१. र. क. ६६, सा. ध. २, २-३ .
२. र. क. ५५; सा. ध. ४-३६.
३. र. क. ५६; सा. ध. ४-५२ (द्विविधं हि तद् वतं स्वदारयन्तोषः परदारवर्जनं चेति एतच्च धन्य स्त्री-प्रकटस्त्रियाविति स्त्रीद्वय सेवाप्रतिषेधोपदेशास्तम्यते । तत्राद्यमभ्यस्तदेवासंयमस्य नैष्ठिकस्येध्यते, द्वितीयं तु तदभ्यासोन्मुखस्य स्वो टीका । )
४. र. क. ६०; सा. ध. ५-२०.
५. र. क. ६७; सा. घ. ५-२८.
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प्रयोग का तथा अतदाकार जिनप्रतिमा के विषय
में अभिषेक के बिना शेष तीन के प्रयोग का उपदेश करते है६ | पं० प्राशावर के इस कथन का श्राधार सोमदेव सूरिका उपासकाध्ययन रहा है, जहां प्राप्त सेवा के उपदेश को समय कहकर उसमे नियुक्त कर्म को -स्नान व पूजनादि रूप विविध जिवाकाण्डों को सामा कि कहा गया है और इसी से उन सब की वहां विस्तारपूर्वक उस सामायिक के प्रकरण में प्ररूपणा भी की गई है।
७. प्रा. समन्तभद्र के समान प्रोषधोपवास के लक्षण का निर्देश करके भी प० प्रशाधर ने पात्र की शक्ति को लक्ष्य मे रखकर उसे उत्तम, मध्यम और जघन्य इस प्रकार तीन भेदो मे विभक्त कर दिया हैं१० । किन्तु प्रा. समन्तभद्र को उक्त प्रोषधोपवास मे चारों प्रकार के ही माहार का सर्वथा त्याग अभीष्ट रहा प्रतीत होता है ।
८. समन्तभद्र ने वैयावृत्य के प्रसंग में जिनेन्द्रदेव की परिचय पूजाका सामान्य से निर्देश किया है११। उसका कुछ विकसित रूप महापुराण ११, उपासकाध्ययन १३ ६. स्नपनाच स्तुति- जपान् साम्यार्थ प्रतिमापिते ।
युज्याद्ययाम्नायमाद्यादृते संकल्पितेऽहंति ।।५-३१ ७. प्राप्तसेवोपदेशः स्यात् समयः समयार्थिनाम् ।
नियुक्तं तत्र यत् कर्म तत् सामायिकमूचिरे ॥४६०
(पं०] भागापर ने उक्त श्लोक (४-३१) की स्पो. टीका में इस उपासकाध्ययन के नाम का निर्देश स्वयं भी कर दिया है। यथा-कथम् ? यथाम्नायम् उपासकाध्ययनाथागमानतिक्रमेरा)
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८. देखिये पृ. २१२ ८७ ।
६. र. क, १०६; सा. ध ५-३४ |
१०. सा. प. २-३५ (देखिये पीछे • १२१) ११. र. क. १११-२०,
१२. पर्व ३८, श्लोक २६-३२ ( इस प्रकरण मे सागार
धर्मामृत के ये श्लोक महापुराण के निम्न श्लोको के आश्रय से रचे गये है-सा. २२५-म. ३८, २७-२८, सा. २६- म. ३२; सा. घ. २७-म. ३०; सा. २८ --- म. ३१; सा. २९ - म. ३३)
१३. उपासका. पृ. २३३-८७ ।