________________
भगरान् महावीर और बुद्ध का परिनिर्वाण
लोक जैसे, सज्जन दास जैसे व दुर्जन राजा जैमे होने लगेंगे । मत्स्य न्याय से सबल दुर्बल को सताता रहेगा । भारतवर्ष बिना पतवार की नाव के समान डावाडोल स्थिति में होगा। चोर अधिक चोरी करेंगे, राजा अधिक कर लेगा व न्यायाधीश अधिक रिश्वत लेगे । मनुष्य धनधान्य मे अधिक भाशक्त होगा ।
"गुरुकुलवास की मर्यादा मिट जायेगी। गुरु शिष्य को शास्त्रज्ञान नहीं देंगे। शिष्य गुरुजनो की सवा नही करेंगे । पृथ्वी पर क्षुद्र जीव-जन्तुम्रों का विस्तार होगा । देवता पृथ्वी से अगोचर होते जायेगे । पुत्र माता-पिता की सेवा नही करेंगे, कुल-बधुएं आचार-हीन होगी । दान, जीन तप र भावनाकी हानि होगी । भिक्षु भिक्षुणियो मे पारम्परिक कलह होते झूठे तोल-मापका प्रचलन होगा। मंत्र, तंत्र, औषधि, मरिण, पुष्प, फल, रस, रूप, प्रायुष्य, ऋद्धि प्राकृति, ऊचाई; इन सब उत्तम बातोमे हास होगा । "आगे चलकर दुपम-सुपमा नामक छठे प्रारे मे तो इन सबका अत्यन्त हानि होगी। पंचम दुम पारे के अन्स में दुःप्रसव नामक प्राचार्य होगे, फल्गुश्री साध्वी होगी, मागिल धावक होगा, सत्यश्री याविका होगी। इन चार मनुष्यों का ही चतुविध संघ होगा । उस समय मनुष्य का शरीर दो हाथ परिमाण धीर धायुष्य बीस वर्ष का होगा । उस पंचम प्रारे के अन्तिम दिन प्रातः काल चारि धर्म, मध्याह्न राजधर्म और अपराह्न मे प्रग्नि का विच्छेद होगा।
१८९
करेंगे। मास और मछलियो के आधार पर वे अपना जीवन-निर्वाह करेंगे।
'इस छठे मारे के पश्चात् उत्सपि
काल-बचा का प्रथम द्वारा प्रायेगा। यह ठीक वैसा ही होगा, जैसा अवसर्पिणी काल चक्राधं का छठा द्वारा था। इसका दूसरा द्वारा उसके पचम प्रारे के समान होगा। इसमें शुभ का धारम्भ होगा। इसके प्रारम्भ में दुष्कर संवर्तक मेथ वरसेगा, जिससे भूमि की उष्मा दूर होगी। फिर क्षीर-मेघ बरसेगा, जिससे धान्य का उद्भव होगा। तीसरा पूरा-मेघ बरसेगा जो पदार्थों मे स्निग्धता पैदा करेगा। चौथा प्रमृत मेघ बरसेगा, इससे नानागुणोपेत श्रौषधिया उत्पन्न होगी। पांचवा रस-मेघ बरसेगा, जिससे पृथ्वी मे सरसता बढेगी। ये पांचो ही मेघ सात-सात दिन तक निरन्तर वरसने वाले होगे३ ।
" वातावरण फिर अनुकूल बनेगा। मनुष्य उन तट विवरो से निकल कर मैदान में बसने लगेगे । क्रमशः उनमे रूप, बुद्धि, आयुष्य आदि की वृद्धि होगी। दुषमसुपमा नामक तृतीय श्रारे मे ग्राम, नगर आदि की रचना होगी। एक-एक कर तीर्थकर होने लगेगे । इस उत्पपिणी काल के चौथे आरे में यौगलिक धर्म का उदय हो जायेगा । मनुष्य युगल रूप मे वंदा होगे, युगल रूप मे गये। उनके बडे-बडे शरीर और बड़े-बड़े प्रायुष्य होंगे। कल्पवृन उनकी आमापूर्ति करेंगे प्राप्य धौर भवगाहना से बढ़ता हुआ पाचवा और छठा द्वारा भायेगा | इस प्रकार यह उत्सर्पिणी काल समाप्त होगा । एक अवसर्पिणी श्रीर एक उमापणी काल का एक काल चक्र होगा । ऐसे कालचक्र प्रतीत मे होते रहे है पौर मनागत में होते रहेंगे जो मनुष्य धर्म की वास्तविक धारावना करते हैं, वे इस काल चक्र को तोड़कर मोक्ष प्राप्त करेंगे, भ्रात्म-स्वरूप में लीन होहु४ ।"
"२१०० वर्ष के पंचम दुपम आरे के व्यतीत होने पर इतने ही वर्षों का छठा दु.पम-दुपमा धारा प्रायेगा । धर्म, समाज, राज व्यवस्था आदि समाप्त हो जायेगं । पिता-पुत्र के व्यवहार भी लुप्तप्रायः होगे। इस काल के भारम्भ मे प्रचण्ड बायु चलेगी तथा प्रलयकारी मेयर बरमेगे। इससे मानव और पशु बीज मात्र ही शेष रह जायेंगे। वे गंगा और सिन्धुर के तट-विवशे मे निवास १. भगवती सूत्र, शतक ७, उद्ददेशक ६ मे इन मेघों को
३. क्रमश: दो मेघों के बाद मात दिनो का 'उघाड़' होगा। इस प्रकार तीसरे पर पौधे मेघ के पश्चात् फिर मात दिनो का 'उपाय' होगा। कुल मिला कर पाचों मेघों का यह ४६ दिनो का क्रम होगा ।
अरसमेध, विरसमेध, क्षारमेघ, खट्टमेघ, अग्निमेघ, विज्जुमेघ, विषमेष, प्रसनिमेष श्रादि नामो से बनाया है। २. उस समय गंगा और सिधु का प्रवाह रथ-मागं जितना ही विस्तृत रह जायेगा। -भग०सूत्र शतक ७, उद्देशक ६ ४. नेमिचन्द्रसूरि कृत महावीर चरिय के आधार से ।
- जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति सूत्र, वक्ष २, काल अधिकार