Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 245
________________ २२४ अनेकान्त मूल निधि को भुलाना नहीं चाहिए।' प्रतिष्ठिा हो तथा उनकी पवित्रता के गीत सभाषोषो में ____ मुनिश्री ने कुछ उपयोगी सुझाव भी दिये है, जो हम सुनाई दे, यही जैनो का लौकिक पुरुषार्थ होना चाहिए । सबके लिए शिक्षा-दर्शक हो सकते हैं। उनके सुझावो को अकाल-स्तुति मे (जपुजी १५० वाणी गुटका मे) लिखा यहा देने का लोभ मै सवरण नही कर सकता। वह है-'स्रावग सुद्ध समूह सिद्धान के देखि'-ऐसे नवीन लिखते हैं: ___गीतो की रचना जैनाचार पर निर्मित हो।" "युग के साथ चलना चाहिए, परन्तु क्षमतावान तो मुनिश्री की यह सत्प्रेरणा वर्तमान जैन-शिक्षा-सस्थानो वही है जो युग को अपने साथ ले चलने की योग्यता उपा- के विचार तथा दिशा-निश्चय के लिए बड़ी महत्वपूर्ण जित करे । अपने सांस्कृतिक मूल्यों का यदि हम स्वयं सामग्री प्रस्तुत करती है। अवमुल्यन नही करें तो दूसग कौन उन्हें गिरा सकता है ? मज्जनो, मै मानता ह कि जैन-समाज भारतीय जीवन समाज और देश के साथ समझौता करना उत्तम बात है, का अभिन्न अंग है। इसलिए आज जो सकट देश के सामने परन्तु अपनी आत्मिक और धार्मिक सम्पति का क्षय करके उपस्थित है। वह उसका भी है और उसे दूर करने में कोई समझौता नही किया जा सकता। प्राचार्य सोमदेव मूरि जन-समाज को अपना योगदान देना चाहिए। सकट से मेग ने कहा है-. "जैनो के लिए उन मब लौकिक विधियो का ग्रालय भौतिक वस्तुओ के मकट से नही है, हालाकि पालन करना सुगम है, जिनमें मम्यक्त्व की हानि न हो दैनिक जीवन में उसका भी अपना महत्व है । मेरा प्राशय तथा व्रतो मे दोष नही पाये।" मद्य, मधु, मास तथा अण्डा तो मूल्यों के मकट से है, उम अास्था के प्रभाव से, जिसके सर्वथा त्याज्य है--इस धार्मिक मत्य को जैन बालको को कारण अाज चार्ग और अनैतिकता का माम्राज्य फैला अच्छी प्रकार ममभा देना चाहिए । हा दिखाई देता है। सर्व एव हि नानां प्रमाणं लोषिको विधि । जैन धर्म में हिसा को परमधर्म माना है । उसके न यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र व्रत दूषणम् ॥ अनुयायियो का कर्तव्य है कि वे अहिमा की तेजस्विता को २ यह युग सहचाग्निा का है। भावात्मक एकता की विश्व के मामने प्रगट करे । प्राज सारा समार अणु-शक्ति गहरी अावश्यकता है। एक गाट्रीयता तथा मानवीय पक्ष के विकाश मे लगा है। उसके विनाशकारी प्रयोग को हम के लिए यथाशक्ति वान्मल्य निर्माण करते जाने मे आत्मबल हीगेगिमा तथा नागासाकी में देख चुके है। अन्य अनेको बनता है। प्रात्मीयों की अधिकता होती है। एसा न देशो मे आज देख रहे है। सच बात यह है कि आज बड़ेकरने से द्वेष-बुद्धि को प्रश्रय मिलता है। कबीर का दोहा । मे-बटे गष्ट्र भयभीत हो रहे है कि यदि दूसरे गष्ट्र के अाज भी इस दृष्टि से अनुपेक्षणीय है पास ग्राणविक शक्ति अधिक हो गई तो उसका अस्तित्व पड़ोसो सूं रूसणा तिल-तिल सुख की हानि। खतरे में पड़ जायगा दो महायुद्ध हम देख चुके है । नीमरे पंडित भये सगवगी पानी पी छानि ॥ महायुद्ध की घटाए जब-तब आकाश में घिर आती है जब ३ शिक्षा-सस्थाग पृथक् पाठ्य-क्रम बनाकर नही चल मसार इतना त्रस्त हो रहा है तो अहिसा के प्रचार के सकती, परन्तु ऐसा वातावरण अवश्य उत्पन्न कर मकती हे लिए इसमे बढकर और कौन-सा उपयुक्त समय हो सकता जिमसे छात्र-वर्ग सत्प्रेरणा ले सके। अपने सास्कृतिक है ? लेकिन किम अहिंसा का ? उम अहिसा का नही, यायोजन, श्रुति-प्रार्थना, नाटक-रूपक, उपदेश-वाक्य इत्यादि जिसे कायर अपनाता है, बल्कि उस अहिसा का, जो वीर द्वाग वहा अनुकूलता निर्माण की जा सकती है। प्रदर्शन का भूषण है और जिसको तेजस्विता के आगे शक्तिशाली न करते हुए प्रयोगात्मकता अपनाना श्रेयस्कर है । सस्थाओ पाशविक बल स्वत ही पराभूत हो जाता है । का अन्तरंग किसी प्रौढ, धार्मिक व्यक्तित्व से परिचालित अहिसा के पुजारी होने के नाते जैन समाज पर इस होना चाहिए। दिशा में भारी जिम्मेदारी पाती है। वर्तमान परिस्थितियों लोक में जैनों का प्रादर्श जीवन पुनः लोक साहित्य मे मे इस जिम्मेदारी का निर्वाह किस प्रकार किया जा सकता

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