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यशपाल जन का अध्यक्षीय भाषण
२२३ बात पर पान्दोलन करते है और उनके हिंसात्मक उपद्रवो अच्छा कल याद करके पाना । नही तो खैर नहीं है प्रगल को दबाने के लिए सरकार को गोली का सहारा लेना दिन युधिष्ठिर पाये तो गुरुके पूछने पर उन्होंने कहा कि पाठ पडता है।
याद नही हपा । इस पर द्रोण ने बहुत खरी-खोटी सुनाई। शिक्षा-संस्थाओं की इस दुरवस्था के लिए शिक्षा-पद्धति कहा कि तुम्हारे मस्तिष्क मे भूसा भरा है और तुम अपने तो दोषी है ही, अध्यापको की अयोग्यता भी कम जिम्मेदार जीवन में कुछ नहीं कर सकते बुरा-भला कहने के बाद नही है। ठीक ही कहा जाता है कि जिन्हे और किसी क्षेत्र उन्हें एक दिन का अवसर और दिया तीसरे दिन पाठशाला में काम नही मिलता. वे अध्यापक बनते है। मेरे कहने का के प्रारम्भ होते ही गुरुजी ने युधिष्ठिर से पाठ की बात तात्पर्य यह नही है कि सब-के-सब अध्यापक प्रयोग्य है, पळी और जब यधिष्ठिर ने इन्कार किया तो द्रोण को ताव लेकिन मेरी पक्की धारणा है कि बहसख्यक वा अध्यापक से या गया। उन्होने यधिष्ठिर को पास बनाया और बड़े है, जिनका शिक्षा में न रस है, न गति । वे बेतन-भोगी के
जोर से एक चाटा उसके गाल पर माग । चाटा लगते ही रूप मे काम करते है।
युधिष्ठिर ने कहा, पाठ याद हो गया । द्रोण बोले, "मुझे तीसरी एक बात और भी है और वह यह कि आज मालूम नही था कि चाटा खाकर तुम्हे पाठ याद होगा, शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित रह गई है, आचरण से अन्यथा दो दिन का समय मै क्यो खराब करता," युधिष्ठिर उसका सम्बन्ध नही रहा । किसी महापुरुष ने कहा है कि ने कहा, "गुरुजी ऐसी बात नहीं है। पहले दिन जब अापने विचारों के अनुकूल अाचरण न हो तो वह गर्भपात के पूछा था कि पाठ याद हुआ तो मुझे अपने पर विश्वास नहीं समान है।
कि मैंने क्रोध को जीत लिया है । सम्भव है, कोई बुरा-भला हमारे देश का अतीत गौरवशाली रहा तो इसीलिए. कहे तो मुझे गुस्सा आ जाय । दूसरे दिन जब आपने मुझ क्योकि ज्ञान के अनुरूप आचरण होता था और शिक्षा का से कठोर बाते कही तब भी मझे गुस्मा नही आया । फिर मुख्य ध्येय जीवन का सुन्दर, निर्दोष, निष्काम तथा निरु- भी मैने सोचा कि हो सकता है कि कोई मारे तो मुझे कोप पाधि बनाना था। जो विद्या इसमे सहायक होती थी वही आ जाय । लेकिन आज जब आपने मारा और मेरे मनमे सर्वोत्तम मानी जाती थी और इसे सिखानेवाला सद्गुरु जग भी गुस्मा नही पाया, तब मै समझा कि मुभे. पाठ अर्थात् प्राचार्यकी संज्ञा से विभूपित किया जाता था। प्राचार्य याद हो गया ।" का अर्थ ही है अाचारवान । स्वय आदर्श जीवन का
बधुग्रो, यह दृष्टान्त मैंने यह बताने के लिए दिया है प्राचरण करत हए राष्ट्र से उसका प्राचरण करा लनेवाला कि सच्चा ज्ञान बही है जो जीवन में उतरे आज विज्ञान ही आचार्य कहलाता था।
की प्रगति से ज्ञान का क्षेत्र तो बहुत व्यापक हो गया है __ शिक्षा और जीवन समन्वय के सम्बन्ध में यहा मुझे, लेकिन उसका सम्बन्ध जीवन से टूट गया है । इसलिए आज महाभारत का एक प्रसग याद आता है । पाण्डव अपने गुरु बार-बार कहा जा रहा है कि विज्ञान और अध्यात्म का दोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करते थे । एक दिन द्रोण ने उन्हें समन्वय होना चाहिए। प्राज यही ममन्वय हमे नही दिखाई पढाया, सत्य बोलो। पढ़ाकर उन्होंने बारी-बारी से पाचो दे रहा । भाइयो से पूछा कि पाठ याद हो गया। सबने उत्तर दिया पूज्य मुनि श्री विद्यानन्दजी ने अपने हाल ही के एक कि हा, हो गया अगले दिन उन्होंने पढाया, क्रोध को जीतो पत्र में मुझे लिखा है, "अाज धर्म और सस्कृति पर निष्ठा पढाकर उन्होंने सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर से पूछा कि पाठ रखने की सर्वाधिक आवश्यकता है यह एक महान प्रयत्न है याद हा तो उन्होने कहा, नही। द्रोण ने और भाइयो जिसके लिए विशाल तथा उच्चकोटि का बहुमुखी प्रयत्न से पूछा तो सबने कह दिया कि हो गया । द्रोण का अपेक्षित है । सोमदेव सूरि ने कहा है-'लोकव्यवहारज्ञों युधिष्ठिर पर अझलाहट हुई। उन्होंने कहा कि तुम्हारी हि सर्वज्ञ. । अन्यस्तु प्राजोऽप्यवज्ञागत एव'- इसलिए बुद्धि कैसी है, जो यह मामूली सा पाठ तुम्हे याद नहीं हुआ लोक-व्यवहार को जानना अत्यावश्क है और उसमें अपनी