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केशि-गौतम-संवाद
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प्रासुक शय्या-सस्तारक पर स्थित हो गये । (५-८) गृहस्थ पाये । इनके अतिरिक्त वहां देव, दानव, गन्धर्व,
इस प्रकार जब वे दोनों महर्षि अपने-अपने शिष्य- यक्ष, राक्षस और किन्नर ये दृश्य तथा अदृश्य भूत व्यन्तर सघ के साथ पाकर एक ही पुरी में प्रतिष्ठित हुए तब भी पाये । (१९-२०) दोनों के शिष्यसमुदाय मे यह चिन्ता प्रादुर्भूत हुई-यह हमारा धर्म कैसा और गौतम गणधर के शिष्यो का धर्म
तत्पश्चात् केशिकुमार गौतम से बोले कि हे महाकसा है ? भ. पार्व जिन ने जहा चातुर्याम-ब्रह्मचर्य- भाग ! मैं पाप से कुछ पूछना चाहता है। इस पर गौतम विहीन चार ही महाव्रत रूप---धर्म का उपदेश दिया बोले कि भते । जो कुछ भी पूछना हो, अवश्य पूछिये । वहां वर्धमान तीर्थकर ने पचशिक्षित-हिसादि पाच तब अनुज्ञा पाकर के शिकुमार बोले । (२१-२२) महाव्रत स्वरूप-उसी धर्म का उपदेश दिया। इसी प्रकार केशि-चातर्याम जो धर्म है उसका उपदेश तो
आचारधर्मप्रणिधि-लिगादिरूप बाह्य क्रियाकलाप के पार्श्व जिनने दिया, और जो पशिक्षित धर्म है उसका विषय में जहा वर्धमान तीर्थकर ने अचेलक (दिगम्बरत्व - उपदेश वर्धमान जिनने दिया है। एक ही कार्य (मुक्ति) वस्त्रबिहीनता) धर्म का उपदेश दिया वहा पार्श्व जिन में प्रवृत्त उक्त दोनो तीर्थ डुरो के इस दो प्रकार धर्म की ने सान्तरोत्तर-प्रमाण आदि में सविशेष व महामूल्यवान् प्ररूपणा का क्या कारण है तथा इसमें आपको सन्देह क्यो होने से प्रधान से वस्त्र से युक्त- उस धर्म का उपदेश नही होता ? दिया। जब उक्त दोनो ही तीर्थकर मुक्तिरूप एक ही
गौतम-तत्त्वनिश्चय से संयुक्त इस धर्मतत्त्व का कार्य मे सलग्न रहे है तब उनके द्वारा उपदिष्ट इस धर्म
रहस्य बुद्धि के बल से जाना जाता है। वाक्य के श्रवण भेद का क्या कारण है ? (६-१३)
मात्र से कभी वाक्यार्थ का निर्णय नही होता-वह तो शिष्यस घो की इस चिन्ता को जानकर दोनो महषियो
बुद्धि के बल पर ही हुआ करता है। प्रथम तीर्थकर के ने आपस में मिलने का विचार किया। तदनुसार यथा
समय में माघु जन ऋजु-जड-सग्ल होते हुए भी दु प्रतियोग्य विनय के वैत्ता गौतम गणधर ज्येष्ठ कुलका विचार
पाद्य थे, अन्तिम तीर्थकर के समय के साधु वक्र-जइ-- करते हुए तिन्दुक वन मे केशिकुमार श्रमण के पास आये ।
कुटिल होकर जड थे, और मध्य के बाईम तीर्थकरो के उन्हे प्राता हुआ देखकर केशिकुमार ने समुचित प्रातिथ्य
समय के साधु ऋजुप्रज्ञ-सरल होते हुए बुद्धिमान थे, मे प्रवृत्त होते हुए उनके बैठने के लिए शीघ्रता से प्रानुक
उनको समझाना कठिन न था। इससे धर्म की प्रमपणा पलाल मे पचम' कुश तृणो को-डाभ के अासन को
दो प्रकार से की गई है। प्रथम तीर्थकर के समय के दिया। (१४-१७)
साधुग्रो को कल्प-साधु के प्राचारका समझाना इस प्रकार एक साथ बैठे हुए वे दोनो महर्षि चन्द्र
कठिन था तो अन्तिम तीर्थकर के साधुनों को उसका सूर्य के समान सुशोभित हुए । (१८)
पालन करना कठिन था। किन्तु मध्य के बाईस तीर्थकरी उनके इस मधुर मिलन के समय कौतुकवश मृगो के
के समय के साधु उस कल्प को मुखपूर्वक समझ भी सकते समान बहुत-से पाखण्डी-इतर व्रती जन-और हजारो
' थे और पालन भी कर सकते थे। (२३-२७) १ तणपणगं पुण भणिय जिणेहि कम्मट्ठ-गठिमहणेहिं । २ केशि-भगवान् वर्धमान ने तो अचेलक धर्मका
साली वीही कोद्दव रालग रन्ने तणाइ च ।। ___ शालि, श्रीहि, कोद्रव, रालक और अरण्यतृण, १ पुरिमा उज्जु-जडा उ वक-जड्डा य पच्छिमा। ये पाच पलाल के भेद है। इनमे पाचवा चूकि अरण्य- मज्झिमा उज्जु-पन्ना उ तेण धम्मो दुहा कए ॥२६ तृण (कुश) है, अत. उसका उल्लेख 'पचम' के रूप पुरिमाण दुविसोझो उ चरिमाण दुरणुपालभो । किया गया है।
कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविमुज्झो सुपाल यो ॥२७