Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 242
________________ भगवान महावीर और बडका परिनिर्वाण २२१ जैसे घी और तेल के जलने पर कुछ शेष नहीं रहता, वैसे द्रोण ब्राह्मण ने मल्लो मे कहा-"यह निर्णय ठीक भगवान् के शरीर में जो चर्म, मास आदि थे, उनकी न नही । भगवान् क्षमावादी थे. हमे भी क्षमा से काम लेना राख बनी, न कोयला बना । केवल अस्थिया ही शेष रही। चाहिए । अस्थियों के लिए झगडा हो, यह ठीक नही। भगवान् के शरीर के दग्ध हो जाने पर आकाश में मेध पाठ स्थानों पर भगवान् की अस्थियाँ होगी, तो पाठ प्रादुर्भूत हुआ और उसने चिता को शात किया। स्तूप होगे और अधिक लोग बुद्ध के प्रति प्रास्थाशील उस समय मल्लो ने भगवान् की अस्थिया अपने बनेगे।" सस्थागार मे स्थापित की । मुरक्षा के लिए शक्ति-पजर' मल्लो ने इस प्रस्ताव को पास किया । तदनन्तर द्रोण बनवाया । धनुष-प्राकार' वनवाया। अम्थियों के सम्मान ब्राह्मण ने अस्थियो के पाठ विभाग कर सबको एक-एक में नृत्य, गीत आदि प्रारम्भ किये । भाग दिया । जिस कुम्भ मे अस्थियां रखी थी, वह अपने धातु-विभाजन पास रखा । पिणलीवन के मोर्य प्राये । अस्थियों बट चुकी उस समय मगधराज अजातशत्रु ने दूत भेज कर थी, वे चिता से प्रगार (कोयला) ले गये। सभी ने अपनेमल्लो को कहलाया--"भगवान् क्षत्रिय थे, मे भी क्षत्रिय अपने प्राप्त अवशेषो पर स्तूप बनवाये। है। भगवान् की अस्थियो का एक भाग मुझे मिले । मै स्तूप भगवान की एक दाढ स्वर्गलोक में पूजित है पोर बनवाऊँगा और पूजा करूगा। इसी प्रकार वैशाली के एक गधारपुर मे । एक कलिग राजा के देश में और एक लिच्छवियो ने, कपिलवस्तु के शाक्यो ने. मल्लकाय के को नागगज पूजते है । चालीम केश, गेम आदि को एकबुलियो ने, गम-गाम के कोलियो ने, वेठ-द्वीप के ब्राह्मणो एक करके नाना चबवालो मे देवता ले गये। ने, तथा पावा के मल्लो ने भी अपने पृथक्-पृथक् अधिकार -- - -- बतलाकर अस्थियो की माग की। कुसिनारा के मल्लाने १ एका हि दाठा तिदिवेहि पूजिता. निर्णय किया--"भगवान् हमारे यहाँ परिनिवृत्त हा है, एका पन गधारपुरे महीयनि । अत हम किसी को अम्थियो का भाग नही देगे।" कालिङ्गरओ विजिते पुनक, एक पन नागराजा महेनि ॥......... १ हाथ मे भाला लिए पुम्पो का घेग । चसालीम समा दला, केसा लोमा च मन्चमो। २ हाथ में धनुप लिए पुरुषो का घेरा। दवा हरिम एकेक, चक्कवालपरम्पग ति॥ अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यापियों, लेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों विश्वविद्यालयों और जनश्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वय बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'अनेकान्त'

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