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यशपाल जन का अध्यक्षीय भाषण
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है इस पर गम्भीरता से विचार करना आवश्यक है। रखते हों और जिनका व्यक्तित्व प्रभावशाली हो। इन एक बन्धू ने सुझाव दिया है कि शिक्षा का स्थान छात्रावासो में प्राचार-विचार की शुद्धता पर सबसे अधिक
कालेज टी दो सकते है। छोटी-छोटी बल दिया जाय । प्रार्थना, स्वाध्याय ग्राहक पाठशालाओं या गरुकलो का अब शिक्षा के क्षेत्र मे कोई जीवन के अनिवार्य प्रग हों। ऐसा प्रयत्न भी किया स्थान रहनेवाला नहीं है उसकी धारणा है कि अपने स्वतन्त्र जिससे छात्रों की दृष्टि व्यापक बने और उनमे मौलिक गुरुकूल अथवा पाठशाला चलाने की अपेक्षा शिक्षा केन्द्रों चिन्तन की प्रवृत्ति उत्पन्न हो। मे जैन-छात्रवासो की सुविधा कर देने से जो परिणाम २ देश की वर्तमान स्थिति में यह तो संभव नहीं है निकल सकते हैं, वे स्वतन्त्र सस्थाएं चलाकर नहीं। कि किसी धर्म विशेष की शिक्षा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित मेरी मान्यता है कि धार्मिक संस्कार देना और धामिक
कराया जा सके, लेकिन भारतीय धर्मों के सामान्य पाचारविषयों का ज्ञान देना, ये दो भिन्न बाते है । जहा तक
विचार की शिक्षा की व्यवस्था तो हो ही सकती है और संस्कार का सम्बन्ध है, वे घरों मे और छोटी-छोटी पाठ
उनके लिए प्रयत्न होने चाहिए। बिना पारिभाषिक शब्दाशालानों के द्वारा ही दिये जा सकते है। लेकिन जहां तक बला का प्रयोग किये, जन सामान्य की भाषा शैली में. ज्ञान का सम्बन्ध है, उसके लिए महाविद्यालय तथा विश्व- ऐसे पाठ तैयार करने चाहिए, जो जैन तथा जैनेता भी विद्यालय स्तर पर शिक्षा तथा अन्वेषण की व्यवस्था करनी छात्रा को नैतिक जीवन की शिक्षा दे सकें। होगी।
३ जन शिक्षा-सस्थानों में ऐसे केन्द्र बनने चाहिए, शिक्षा किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होती है। बिना शिक्षा जिनमें जन-धर्म तथा दर्शक का अध्ययन एव शोध कोना के कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता । ससार का इति- सके । मृयोग्य एव क्षमतावान छात्रो को छात्रवनिया हास साक्षी है कि जिन देशो मे देश-कालके अनुसार शिक्षा देकर उस दिशा में विशेष प्रेरणा देनी चाहिए। द्वारा देशवासियो का चरित्र ऊचा किया गया है, उन देशी ४. महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में जहा सस्कृत ने कुछ समय में ही बड़ी भारी उन्नति की है । वे कही-के- पढाई जाती है, वहां विकल्प रूप में प्राकृत, अपभ्रश प्रादि कही पहुंच गये है।
भाषामों के अध्ययन का भी प्रबन्ध होना चाहिए। प्राज लेकिन स्मरण रहे कि सही ढग की शिक्षा जितना भी बहुत-से विद्यानुरागी युवक है, जो प्राकृत, अपभ्रश लाभ पहुचाती है, गलत शिक्षा उससे कहीं अधिक हानि ग्रादि भाषामो के ग्रथो के अध्ययन में विशेष रुचि रखते पहचाती है । हमारे देश की जो हानि हुई है और हो रही हैं उन्हे इन भाषाओं के सीखने तथा अन्यों के अध्ययन की है वह इसलिए कि हमने अभी तक अपनी शिक्षा को पुरानी मुविधा मिलनी चाहिए। लकीर से हटाकर नये सांचे मे नहीं ढाला।
५. जैन शिक्षा-सस्थानो में जैन संस्कृति तथा दर्शन अखिल भारतीय जैन शिक्षा-परिषद का मुख्य उद्देश्य के सम्बन्ध में समय-समय पर विद्वानो के भाषणो का जैन शिक्षा तथा शिक्षा-संस्थानो को अधिकाधिक व्यापक प्रायोजन होना चाहिए । इन भाषाणो में यह दृष्टि रहनी एवं उपयोगी बनाना है। इस सबन्ध मे मै कुछ सुझाव आवश्यक है कि हम अपने धर्म तथा सस्कृति को तो जाने, आपके विचारार्थ प्रस्तुत करता हूँ।
लेकिन हमारी वृत्ति सर्व-धर्म-समभाव की हो, यानी हमारे १. आज जन-समाज द्वारा जितनी शिक्षा-सस्थाओं का अन्दर सब धर्मों के लिए समान आदर-भाव जाग्रत हो। संचालन हो रहा है, उनके साथ एक-एक छात्रवास की ६. भारत की राजधानी में एक ऐमे संग्रहालय की व्यवस्था हो, विशेषकर बडे-बडे नगरों में तो शीघ्रातिशीघ्र स्थापना होनी चाहिए, जिनमे जन-धर्म के प्रमुख मुद्रित एवं हो जानी चाहिए, जहां युवको में चरित्र का ह्रास बड़ी हस्तलिखित ग्रन्थोंका संग्रह हो । ऐसे संग्रहालय कुछ स्थानो तेजी से हो रहा है। इन छात्रावासो के संचालन का पर है, लेकिन दिल्ली एशिया का महत्वपूर्ण केन्द्र है अत. दायित्व उन व्यक्तियों पर हो, जो धर्म में गहरी प्रास्था एक बड़ा सग्रहालय वहाँ होना चाहिए । संग्रहालय की