Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 226
________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ बस्ती मंदिर तथा मूलनायक मूर्ति २०५ प्रतः ई. स. १८०० के बाद ही इस नये मन्दिर का में सेनगण की वेदी और गुरुपीठ भी निर्माण कराया है। निर्माण शक्य है। अकोला जिले के ईनाम सार्टिफिकेट इसमे लक्ष्मीसेन भट्टारक बहुत सक्रिय थे। बुक मे इस नये मन्दिर की बाबत जो उल्लेख है उसकी इस कार्य के समाप्त होते ही मन्दिर के दक्षिण बाजू जानकारी इस लेख मे प्रारम्भ मे ही दी गई है। उसके मे धरमशाला बँघाने का कार्य श्री पानंदि के शिष्य प्राधार से इतना तो निश्चित है कि इस नये मन्दिर का देवेद्रकीति ने किया। यह समबई. स. १८४०-४५ होगा। निर्माण ई सन् १८२५ के पहले ही हुआ है तब इसमे मूल- इस धरमशाला में चार कमरे बनाये गये थे, उसमे से २ नायक मूर्ति का स्थानातर किया गया था। ई. स. १८६८ मे बरतन तथा पूजा की भाडी आदि साहित्य रहता था । में शिरपुर में जो वृद्ध लोग थे उनको इतना स्पष्ट स्मरण और दो मे श्री पद्मावती माता के तथा इंद्रों के माभूषण था कि, मूर्ति का जूने मन्दिर से नये मन्दिर में स्थानातर । आदि रहते थे। इनको भडार के कमरे भी कहते थे । इन उनके ही पाखों के सामने हुआ था तथा जो पुराना मन्दिर भण्डार की जाच ई.स १८५७-५८ मे भट्टारक लक्ष्मीसेन खाली था उसका भी जीर्णोद्धार (ई. स. १८६८ से) कम ने स्वय की थी। उनके निजी बही खाते में उन सब चीजों से कम ४० साल पहले हया था। निश्चित तथा तिथि, की याद मौजूद है। प्रतिष्ठाकार या प्रतिष्ठापक इनका स्मरण न रहना स्पष्ट इसके बाद मन्दिर का कपाउड वॉल तथा गेट (महाकरता है कि ४० साल से भी ज्यादा यानी उनके बचपन द्वार) बनाने का कार्य चालू हुआ जो ई. स. १८६८ में के समय की वह घटना होगी। इससे यह सिद्ध होता है चल रहा था। वह पूर्ण होते ही फिर दक्षिण की धर्मकि ई स. १८०० के दरम्यान ही इस नये मन्दिर का शाला न. २ की गच्ची पर तथा मन्दिर के गर्भागार मे निर्माण हुआ है। चूने का गिलावा डलवाकर ई. स. १८८० मे भट्टारक इस समय मन्दिर के सरक्षण के लिये कुछ मराठा देवेद्रकीति जी ने ही मरम्मत करवाई थी। लोगो को (जिनको आज पोलकर कहते है) मन्दिर के इस नए मंदिर को रचना और शिल्प-कारंजा के आवास में ही रहने के लिए जगह दी तथा उनका भी यह बालात्कारगण जैन मन्दिर की रचना घोर इस मन्दिर को श्रद्धास्थान बने इस लिए मन्दिर के बाहर पश्चिम के कोने रचना में बहुत साम्य है। छोटा प्रवेश द्वार, भगवान से में शिवपिंड स्थापन कर दी गई। मतलब यह था कि कम ऊँचाई पर अलग जगह क्षेत्रपालों की रचना प्रादि मन्दिर का सरक्षण यानी शिवपिंड का सरक्षण ऐसा ये बात एक ही वैशिष्टय या एक ही शिल्पकार की देन मालूम लोग मानेंगे। पडती है । यहा के और वहां के शिल्प में भी खड़ी तया ___ इसके साथ मन्दिर के पश्चिम में बडी धर्मशाला भी बैठी नग्न प्रतिमाए उत्कीर्ण या प्रकित की गई है। निर्माण की गई। इस कार्य में भट्रारक पद्मनंदी का (ई. कारंजा के इस मन्दिर के भट्टारक और पंच ही इस मन्दिर स. १८२०) बहुत योगदान था। इनको पौलकर लोग २०) बहत योगदान योजना के मालिक या पंच रहे हैं। २ मालिक मानते थे । इनका गुरु पीठ भी इस मन्दिर मे है। स्मरण रहे कि जैसा इस मन्दिर में दिगम्बर जैन इस नये मन्दिर व धर्मशाला के निर्माण मे कारंजा के भट्टारको के गुरुपीठ है और प्राचीन दि० मूति तथा फोटो सेनगण परम्परा के भट्टारकों ने भी तन-मन-धन से पूरा है उसी तरह यहां एक भी श्वेताबरी गुरुपीठ नहीं हैं या सहयोग दिया। भट्टारक जिनसेन ने (इ. स. १६५५ से श्वेताम्बरी कोई स्वतंत्र वेदी नही है। १७५४) अपने जीवन के अंतिम ४०-५० साल यहाँ रह इस प्रकार यह मन्दिर की भूमि और इस गांव की कर यानी औरंगजेब की सवारी के बाद यहा रहकर घब- जनता चाहे वह जैन हो या प्रजन, बाल हो या वृद्धराये धावकों को दिलासा दिया था। उनकी, उनके शिष्य कहती है कि यह तीर्थ सम्पूर्णतया दि. जैनों का ही है। की भी समाधि यहां हुई है। इन सेनगण भट्टारको के फिर भी इस मन्दिर की बाबत या यहां के ऐतिहासिक स्मृति हेतु इस नये मन्दिर के ऊपर के (दर्शनी) मजिल धार्मिक जानकारी के लिए यहाँ प्रतिष्ठित मौर स्थापित

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