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अनेकान्त
क्रमशः एक यक्ष और एक यक्षिणी का भी प्रदर्शन आव- रिक्त जैनियों का देव वृन्द ब्राह्मण देव वृन्द ही है। श्यक है। तीसरे अशोक (म्र वृक्ष जिसके नीचे बैठकर (स) तीर्थंकरजिन-विशेष ने ज्ञान प्राप्त किया) वृक्ष के साथ अष्ट- जैनधर्म में सभी तीर्थकरो की समान महिमा है। प्रातिहार्यों (दिव्यतरु, आसन, सिहासन तथा प्रातपत्र' बौद्ध गौतमबुद्ध की ही जिस प्रकार में सर्वतिशायी प्रतिचामर, भामण्डल, दिव्य-दुन्दुभि, सुरपुष्पवृष्टि एव दिव्य- ष्ठित करते हैं, वैमा जैनियों में नहीं। तीर्यकर प्रतिमा ध्वनि) में से किसी एक का प्रदर्शन भी विहित है। निदर्शनों में इस तथ्य का पोषण पाया जाता है। जैन तीर्थङ्कर-विशेष की प्रतिमा मे इन सभी प्रतीकों का प्रतिमानो की दूसरी विशेषता यह है कि जिनों के चित्रण प्रकल्पन अनिवार्य है। जिन प्रतिमा मे शासन-देवताओं- में तीर्थकरो का सर्वश्रेष्ठ पद प्रकल्पित होता है। ब्रह्मादि यक्षों एव यक्षणियों का प्रदर्शन गौडरूप से ही अभिप्रेत है देव भी गोड-पद के ही अधिकारी है। इसी दृष्टि से हाँ उनकी निजी प्रतिमाओं मे जिनमूर्ति गौड हो जाती है हेमचंद्र के 'अभिधान-चिन्तामणि' मे जैन देवो का 'देवादि और उसको आविर्भूत बौद्धदेव वृन्द मे प्राविर्भावक-देव की देव' और देव इन दो श्रेणियों में जो विभाजन है, वह प्रतिमा के सदृश, शीर्ष पर अथवा अन्य किमी ऊवं पद समझ मे या मकता। देवादिदेव तीर्थकर तथा देव अन्य पर प्रतिष्ठापित किया जाता है।
महायक देव, थी वृन्दावन भट्टाचार्य ने ठीक ही लिखा है। (ब) जैन-देवों के विभिन्न वर्ग
In inconography also this idea of the relative 'प्राचार दिनकर के अनुसार जैनो के देव एव देवियो superiority of the Jains has manipasted itself की ३ श्रेणियों है। १. प्रासाद देवियां, २. कूल देवियों In the earliest of Jainism, the Tirthankaras (तांत्रिक देवियाँ) तथा ६. साम्प्रदाय देवियाँ। यहाँ पर prominently occupy about the what realy of यह स्मरण रहे कि जैनों के दो प्रधान सम्प्रदायो दिगम्बर the stone एवं श्वेताम्बर-देवो एव देवियों की एक परम्परा नही है। जैन-मदिरो की मूर्ति-प्रतिष्ठा मे मूलनायक अर्थात् तात्रिक देवियाँ श्वेताम्बरों की विशेषता है। महायानी प्रमुख जिन प्रधान पद का अधिकारी होता है। और अन्य तथा वज्रयानी बौद्धो के सदृश श्वेताम्बरो ने भी नाना तीर्थकगे का अपेक्षाकृत गौड पद होता है। इस परम्पग देवो की परिकल्पना की।
में स्थान विशेष का महत्व अन्तदित है। तीर्थकर-विशेष से जैनो के प्राचीन देववाद मे चार प्रधान वर्ग है
सम्बन्धित स्थान के मन्दिर मे उसी की प्रधानता देखी गयी १ ज्योतिषी, २ विमानवासी, ३ भवन पति ४ व्यन्तर।
है। उदाहरणार्थ मारनाथ के जैन-मन्दिर में जो तीर्थकर ज्योतिषी मे नवग्रहों का सकीर्तन है। विमानवासी दो मूलनालकके पद पर प्रतिष्ठिन है वह (पर्वा । थेवाशनाथ) उपसगों में विभाजित है। उत्तर कल्प तथा अनुत्तर कल्प। मारनाथ में उत्पन्न हुआ था ।-सा माना जाता है। प्रथम में सुधर्म, ईशान, सनत्कुमार, ब्रह्मा आदि १२ देव तीर्थकर राग द्वेष से रहित है। साथ तपस्विता के परिगणित है तथा दूसरे मे पाँच स्थानो के अधिष्ठातृकदेव अनुसार जिनो की मूर्तिया योगी रूप में चित्रित की जाती इन्द्र के पांच रूप-विजय, विजयन्त, जयन्त, अपराजित है। प्रतिमा निदर्शनो मे प्राप्त इस तथ्य का निदर्शन है ।
और सर्वार्थसिद्ध । भवन-पतियो मे असुर नाग, विद्युत् पद्मासन अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा मे नग्न जिन मूर्तियां सपुर्ण प्रादि १० श्रेणियाँ है। व्यन्तरों मे पिशाच, राक्षस, सर्वत्र प्रसिद्ध है। तीर्थकरो की प्रतिमाये एव जिन मूर्तियो यक्ष, गधर्व आदि पाठ श्रेणियाँ हैं। इन चार देव वर्गों के में इतना अधिक सादृश्य है कि साधारण जनों के लिए अतिरिक्त षोडश श्रुत अथवा विद्या देवियाँ और अष्ट कभी-२ उनकी पारस्परिक अभिज्ञा दुष्कर हो जाती है। मातृकाएँ भी जैनियों में पूज्य है । जैनियों में वास्तु देवी कतिपय लाछनो-श्री वत्स आदि से दोनो का पारस्परिक की भी परिकल्पना है। इस संक्षिप्त समीक्षा से यह पार्थक्य प्रकट होता है । कुशान-काल की मूर्तियों मे प्रतीक निष्कर्ष निकलने में देर न लगेगी कि तीर्थंकरों के अति- संयोजना के अतिरिक्त यक्ष दक्षिणी अनुगामित्व नहीं प्राप्त