Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 231
________________ २१० अनेकान्त इस प्रकार जैनियों के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर सम्प्रदायों महत्त्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है। श्वेताम्बरों और का भेद अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है। दिगम्बरों की पूजा-प्रणाली मे भेद है-श्वेताम्बर पुष्पादि जैनियों का भी बड़ा ही पृथुल धार्मिक माहित्य है द्रव्यों का प्रयोग करते है, दिगम्बर उनके स्थान पर प्रक्षत बौद्धों ने पाली और जैनियों ने प्राकृत अपनाई। महावीर आदि ही चढाते है। दूसरे दिगम्बर प्रचुर जल का ने भी तत्कालीन-लोक भाषा अर्धमागधी या पार्ष-प्राकृत मे (मूतिया क स्नान म) प्रयोग करते है। परन्तु श्वेता अपना उपदेश दिया था । महाबीर के प्रधान गणधर बहुत थाड जल स काम निकालते है। तीसरे दिगम्बर (शिष्य) गौतम इन्द्रभूति ने उनके उपदेशों को गात्र में मूति-पूजा कर सकते है परन्तु श्वेताम्बर तो अपने १२ 'अंग' तथा १४ 'पूर्व' के रूप में निबद्ध किया इनको मन्दिरों मे दीपक भी नहीं जलाते---सम्भवतः हिंसा न हो जैनी लोग 'पागम' के नाम से पुकारते है । श्वेताम्बरों का जाय । सम्पूर्ण जैनागम ६ भागो में विभाजित है । अंग, उपाग, जिस प्रकार ब्राह्मणों के शाक-वर्म मे शक्ति-गूजा प्रकीर्णक, छेदमूत्र, सूत्र तथा मूलसूत्र-जिसके पृथक्-पृथक् (देवी-पूजा) का देव-पूजा मे प्रमुख स्थान है । बोडो ने भी अनेक ग्रन्थ है। दिगम्बरों के प्रागम षट्खण्डागम एव एक विलक्षण शक्ति-पूजा अपनाई उसी प्रकार जैनियो में कसाय-पाहुड विशेष उल्लेख्य है। जैनियो के पुराण है भी शक्ति-पूजा की मान्यता स्वीकार हुई। जैन-धर्म जिनमे २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव, तीर्थकर-वादी है, ईश्वरवादी नही है यह हम पहले ही प्रतिवासुदेव के वर्णन है । इन सब की सख्या ६३ है जो कह पाये है। जैनियो के मन्दिर एव तीर्थ-स्थानो में देवी'शलाका-पुरुष' के नाम से उल्लेखित किये गये है। स्थान प्रमुख स्थान रखता है। जैन-शामन की पूर्णता जैन-धर्म की भी अपनी दर्शन-ज्योति है परन्तु इस । शाक्त-शामन पर है। जैन-यति तान्त्रिक उपासना के पक्षधर्म की मौलिक भित्ति प्राचार है। प्राचार-प्रधान इम पाती थे । ककाली, काची ग्रादि तान्त्रिक देवियो का जैन धर्म में परम्परागत उन मभी आचागें (आचार. प्रयमो । ग्रन्थो में महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा एवं सकीर्तन है । ददेताम्बरों धर्मः) का अनुगमन है जिससे जीवन मरल, सच्चा और ने महायान बौद्धो के सदृश तान्त्रिक-परम्परा पल्लवित साधु बन सके । की। जैन-शासन मे तीर्थकर-विषयक ध्यानयोग का विधान जैन-धर्म यतियो एवं श्रावको दोनो के लिए सामान्य है। दम योग के घi.ema एवं विशिष्ट प्रादेश देता है । अतएव भाव-पूजा विभाग है। धर्म-ध्यान केोग बाप के पन: चार एवं उपचार-पूजा दोनों का ही इस धर्म मे स्थान है। __ विभाग है। पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूप-वजित । प्रतीक-पूजा मानव-सभ्यता का एक अभिन्न अंग होने के इनमें मन्त्र-विद्या का सयोग स्वाभाविक था-हेमचन्द्र के कारण सभी धर्मों एव संस्कृतियों ने अपनाया, अतः जैनियो योग-शास्त्र में ऐसा प्रतिपादन किया है। इस मत्रमे भी यह परम्परा प्रचलित थी। विद्या के कालान्तर पाकर दो स्वरूप विकसित हुए-- उपचारात्मक पूजा-प्रणाली के लिए मन्दिर-निर्माण मलिन-विद्या और शद्ध-विद्या जैसा कि ब्राह्मण धर्म में एवं प्रतिमा-प्रतिष्ठा अनिवार्य है। अतएव जैनियों ने भी वामाचार और दक्षिणाचार की गाथा है। शद्ध-विद्या की श्रावको के लिए दैनिक मन्दिराभिगमन एवं देव-दर्शन अधिष्ठात देवी सरस्वती की पूजा जैनियो में विशेष मान्य अनिवार्य बताया । समस्त धार्मिक कृत्यो एव उपासनाओ है। सरस्वती-पूजा के अतिरिक्त जैन-धर्म में प्रत्येक के लिए मन्दिर ही जैनियो के केन्द्र है। देव-पूजा के तीर्थकर का एक-एक शासन देवता का भी यही रहस्य है। उपचारों में जल-पूजा, चन्दन-पूजा, अक्षत-पूजा, पारातिक श्वेताम्बरमतानुसार ये चौबीस देवता आगे जैन-प्रतिमा और सामायिक (पाठ) आदि विशेष विहित है । प्रतीक- लक्षण में चौबीस तीर्थकर के साथ-साथ सज्ञापित किये पूजा का सर्वप्रबल निदर्शन जैनियो की सिद्ध-चक्र-पूजा है जायेगे। सरस्वती के षोडश विद्या-व्यूहो का हम आगे ही जो तीर्थकरों की प्रतिमाओं के साथ-साथ मन्दिर मे उसी अवसर पर सकीर्तन करेगे। इस प्रकार जैनधर्म मे

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