Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 238
________________ भगवान महावीर और बुद्ध का परिनिर्वाण २१७ करो। अब प्रार्थना करने का समय नही रहा।" मानन्द भगवान् पात्र-चीबर ले चुन्द कर्मार-पुत्र के घर आये और ने क्रमश: तीन बार अपनी प्रार्थना को दुहराया। बद्ध ने भाजन किया । भोजन करते भगवान् ने चुन्द को कहाकहा-"क्यों तथागत को विवश करते हो ? रहने दो "अन्य भिक्षुषों को मत दो यह सूकर-मव । ये इसे नही इस बात को। प्रानन्द मैं कल्प भर नही ठहरता, इसमे । पचा सकेंगे।" भोजन के उपरान्त भगवान् को असीम तुम्हारा ही दोप है। मैंने अनेक बार तथागत की क्षमता वेदना हई। विरेचन पर विरेचन होने लगा और वह भी का उल्लेख तुम्हारे सामने किया। पर तुम मुक ही बने रक्तमय । रहे।" इतना होने पर भी भगवान् पावा से कुसिनारा की ___ वहा से उठकर भगवान् महावन कूटागार शाला मे ओर चल पडे। बलान्त हो रास्ते में बैठे। भानन्द से आये। वहा पाकर मानन्द को आदेश दिया-"वैशाली कहा-"निकट की नदी से पानी लायो। मुझे बहुत के पास जितने भिक्षु विहार करते है, उन्हे उपस्थान-शाला प्यास लगी है।" प्रानन्द ने कहा- "भगवन् अभी-अभी में एकत्रित करो।" भिक्षु एकत्रित हुए। बुद्ध ने कहा १०० गाडे इस निकट की नदी से निकले है। यह छोटी "हन्त भिक्षपो ! तुम्हे कहता हूं, सस्कार (कृत-वस्तु) नदी है । सारा पानी मटमैला हो रहा है। कुछ ही आगे नाशमान है । प्रभाद-रहित हो, प्रादेय का सम्पादन करो। ककु था नदी है, वह स्वच्छ और रमणीय है। वहां पहुँच अचिरकाल में ही तथागत का परिनिर्वाण होगा, आज से कर भगवान पानी पीए।" भगवान् ने दूसरी बार मोर तीन मास पश्चात् ।" तीमरी बार वैसे ही कहा, तो आनन्द उठकर गये । देखा, अन्तिम यात्रा पानी अत्यन्त स्वच्छ और शान्त है। प्रानन्द भगवान के तब भगवान् वैशाली में सिनारा की पोर चले। इस ऋद्धि-बल से प्रानन्द-विभोर हुए। पात्र में पानी ला योगनगर के मानन्द चैत्य में बुद्ध ने कहा-"भिक्षुमो कोई भगवान का पिल भिक्ष यह कहे-'पावसो ! मैंने इमे भगवान के मुख से प्रालार-कालाम के शिष्य से भेंट मुना; यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का उपदेश भगवान के वहाँ बैठे प्रालार-कालाम का गिण्य है।' भिक्षुयो । उस कथन का पहले न अभिनन्दन करना पुर्वबुम मल्ल-पुत्र मार्ग चलते पाया। एक ओर बैठकर न निन्दा करना। उस कथन की मुत्र और विनय मे बोला--"भन्ते ! प्रवजित लोग शान्ततर विहार से विहरते गवेषणा करना । वहाँ वह न हो तो समझना यह इस है। एक बार बालार-कालाम मार्ग के समीपस्थ वृक्ष की भिक्षु का ही दुहीत है। सूत्र और विनय मे यह कथन छाया में विहार करते थे। ५०० गाड़ियां उनके पोछे से मिले, तो समझना, अवश्य यह तथागत का वचन है।" गई। कुछ देर पश्चात् उसी सार्थ का एक पादमी आया । भगवान् विहार करते क्रमश. पावा पहुँचे। चुन्द उमने आलार-कालाम से पूछाकर्मार-पुत्र के ग्राम्र वन में ठहरे। चुन्द कर्मार पुत्र ने 'भन्ते ! गाड़ियो को जाते देखा?" भिक्षु-सघ-सहित बुद्ध को अपने यहा भोजन के लिए 'नही आवुस !' प्रामत्रित किया पहली रात को भोजन की विशेप तैयारिया 'भन्ते ! शब्द सुना ?' की। बहुत सारा 'सूकर-मद्दव" तैयार किया। यथासमय 'नही आवुम !' १. बुद्धघोप ने (उदान-अट्ठकथा, ८.५) 'सूकर-महव' 'भन्ने ! सो गये थे ?' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है-"नातितरुणस्स 'नहीं प्रावुस !' नातिजिण्णस्स एक जे?कसूकरस्स पवत्तमंस" अर्थान् विरोधाभास नही लगता। अन्य किसी प्रसंग पर न अति तरुण, न अति वृद्ध एक (वर्ष) ज्येष्ठ मूअर उग्ग गृहपति के अनुरोध पर बुद्ध ने सूकर का मांस का मास' । 'सूकर-मद्दव' के अनन्य प्रमासपरक अर्थ ग्रहण किया, ऐसा प्रगुत्तरनिकाय (पञ्चक निपात) भी किये जाते है, पर मांसपरक में अर्थ भी कोई में उल्लेख है।

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