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श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाय बस्ती मंदिर तथा मूलनायक मूर्ति
करने की दिगंबरों से सम्मति ली, और लेप करते समय श्री मलधारी पचप्रभ देव को इस मूर्ति की प्रतिष्ठा में कारीगरों के हाथ से लेप में कटिसूत्र तथा लगोट के चिह्न एलिचपुर पधारने का प्रामंत्रण दिया होगा । एलिचपुर की बनाने की कोशिस की। यह नजर मे आते ही दिगंबरियो जगह इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा शिरपुर में ही हो गई। ने काम बन्द कराया। तो भी उन्होने चोरी से लेप का राजा के मन्दिर मे मूर्ति ने प्रवेश न करने से बाद में गुरू काम कर लिया। ४।१६१० के केस में उन्होंने मूर्ति का को बुलाया गया, यह बात बराबर नही लगती। स्वामूल स्वरूप कोर्ट के सामने नही पाने दिया । लेप मे बताये भाविक तो यह है कि ऐसे मंगल प्रसंग में चतुः संघ को चिह्न के अनुसार कोर्ट को 'कटिसूत्र तथा लंगोट' की पहले से ही निमंत्रित किया जाता है। इसी कारण मूर्ति मान्यता देनी पडी। लेकिन हाल ही १९५६ मे जब उन्होने यहाँ ही निकलकर दो फलांग के अन्तर पर रुकने मे मूर्ति पर का लेप उतार दिया था और इस स्वयभू प्रति- एलोरा से आकर यहां रुकने में तथा उसकी प्रतिष्ठा में प्ठित मूर्ति पर टांकी के घाव देकर कटिसूत्र निकालना चतु. संघ उपस्थित रहने में वाधा नहीं पाती। अत: यह प्रारम्भ किया। यह कृष्ण कृत्य प्रगट होने में देर नहीं पद्मप्रभदेवाचार्य यहां तब उपस्थित थे और उनके तत्त्वावलगी। स्थानीय अधिकारी तथा पुरातत्व विभाग को धान मे गाँव मे ही मन्दिर बनवा कर प्रतिष्ठित महोत्सव इसकी सूचना तुरन्त दी गयी। उस समय के पचनामा हा था। तथा स्पॉट इन्सपेक्शन से स्पष्ट घोषित हुआ कि मूर्ति मजबूत पाषाण की है तथा मूर्ति पर कटिसूत्र या ल गोटे
आइये, जाते समय बाहर से इस मन्दिर को और एक के काइ चिह्न नहीं है। यानी मूर्ति मूलतः दिगबरी है। दफ देख लें । मन्दिर के ऊपर हवा में लहराने वाला भला
सदेश दे रहा है :यह मूर्ति ऊपर के साहित्य में बताये मुताबिक मान भी लिया जाय कि, एलोरा से लाई है तो भी रास्ते में जो
"मंडा यह केशरिया करे पुकार, देवगिरि स्थान पाता है, उस समय वहाँ होने वाले १०८ दिगंबर जैन धर्म का जय जयकार ।"
भारतीय वास्तुशास्त्र में जैन प्रतिमा संबंधी ज्ञातव्य
अगरचन्द नाहटा जैनधर्म मे स्तूप, अयागपट्ट, मूतियों, मन्दिरो के विषयों की जानकारी तो उनके पास होती है पर वे न निर्माण की प्राचीन एव उल्लेखनीय परम्परा रही है जैन तो स्वयं किसी ग्रन्थ को पढ़ते है और न अपनी जानकारी मन्दिरों एव मूर्तियो के सम्बन्ध मे मध्यकालीन वास्तु लिपिबद्ध ही करते है । थोडे से शिल्पी ऐसे जरूर हुये है शास्त्र सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थो मे ज्ञातव्य विवरण मिलता है जिन्होने वास्तुशास्त्र संबधी ग्रन्थ बनाये है। यद्यपि उपलब्ध जैन मूर्तियो की विविधता का समावेश जैनधर्म में मूर्ति पूजा जितनी प्राचीन है इस संबंधि इन विवरणों मे पूर्ण रूप से नही हो पाता। शिल्पियों ने ग्रन्थ उतने प्राचीन नही मिलते । प्राचीन जैन भागमों के अपनी परम्परागत जानकारी को लिपिबद्ध नही करके अनुसार तो जैन मूर्तियों की पूजा अनादिकाल से देवलोक वश परम्परागत रखा । वैसे सभी शिल्पी शिक्षित भी नहीं प्रादि में परम्परागत चली पा रही है। नंदीवर द्वीपादि होते। अपनी वंश परम्परा से अपनी आजीविकागत के मन्दिर व जैन मूर्तियों को भी शाश्वत माना गया है ।