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प्रोम् प्रहम्
अनकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्पनेकान्तम् ॥
वर्ष २०
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वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, विल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६३, वि० सं० २०२४
दिसम्बर सन् १९६७
किरण ५
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पद्मप्रभ-जिन-स्तुतिः
( अर्बभ्रमः )
अपापापवमेयश्रीपादप प्रभोऽर्दय। पापमप्रतिमाभो मे पद्मप्रभ मतिप्रदः ॥२७॥
-समंतभद्राचार्य प्रयं-हे प्रभो! आपके चरणकमल पूर्वसंचित पापकर्म से रहित हैं, भापत्तियों से शून्य है, और अपरिमित लक्ष्मी के शोभा के-आधार है। तथा पाप स्वयं भी अनुषम प्राभा से-तेज से सहित है। हे सम्यग्जान देने वाले पपप्रभ जिनेन्द्र ! मेरे भी पापकर्म नष्ट कीजिये।
भावार्य-भगवन् ! आपके निष्पाप-पवित्र चरणकमलों के प्राश्रय से मनुष्य को वह सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह अपने समस्त पापकर्म तथा उनके फल स्वरूप प्राप्त हुई प्रापत्तियों को नष्ट कर अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मी से सहित हो जाता है और तब उसकी प्रात्मा अनन्त तेज से प्रभासित हो उठती है ॥२७॥
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