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श्रीधर स्वामी की निर्वाण भूमि, कुगलपुर
१६५ गौतम थे । भगवान महावीरके पश्चात् कार्तिक कृष्ण १५ को श्री महावीर स्वामी हैं। ऐसा कहा जाता पा रहा है। ही श्री गौतम केवली हुए उनके पट्ट पर रहने वाले सुधर्मा- सं० १७५७ माह सुदी १५ सोमवार का एक शिलालेख चार्य थे जो गणधर तो भगवान महावीर के थे पर उनको श्री मन्दिर जी मे है। उसमें भी इन्हें महावीर स्वामी पट्र श्री गौतम स्वामी के बाद प्राप्त हुआ। और सुधर्मा- लिखा है। पर मूर्ति के अधोभाग में जहाँ सिंहासन के सिह चार्य भी केवली हुए इनके बाद इनके पट्ट पर श्री जम्बू- बने है उनके मध्य जो रिन्ह बनाने का स्थान है वहाँ कोई स्वामी हए जो केवली हुए। जम्बूस्वामी के पट्ट पर श्री चिन्ह नहीं है । जो चिन्ह है वे सिंहामन के रूप में है और विष्णनन्दि तथा विष्णुनन्दि के पट्ट पर श्री नन्दिमित्र, ऐसे चिन्ह कुण्डलपुर के उसी मन्दिर मे संस्थापित श्री नन्दिमित्र के पट पर अपराजित फिर गोवर्धन और उनक नेमिनाथ, संभवनाथ आदि सभी तीर्थकर मूर्तियो मे बने पट पर श्रीभद्रबाह (प्रथम) हये पर ये सब श्रुतकेवली हुये है। पर वे मात्र सिहासन के प्रतीक है तीर्थकर का चिन्ह केवली नही हए। इनसे शिष्य प्रशिष्य परम्परा पागे चली तो दो सिहों के मध्य में है। इस मूल प्रतिमा में चिन्ह के जो भूतबली प्राचार्य तक ६८३ वर्ष प्रमाण चली। स्थान पर कोई चिन्ह नहीं है।
यद्यपि प्राचार्य परम्परा आगे भी चली परन्तु यहाँ प्रतिमा के आसन के पाषाण मे दोनों चरणों के पास तक अंगशान रहा इसके बाद अंगधारी नही हुये। आज दो कमल बने है। ये चिन्ह नही है, यदि चिन्ह होते तो एक के महान ग्रंथ खट्खण्डागम श्रीपुष्पदन्त और भूतबलि बनाया जाता, और वह भी मध्य में न कि दोनो चरणों के आचार्य द्वारा रचित हैं।
नीचे एक-एक । इसके सिवाय मस्तक के आसपास दोनो इस प्रकार पट्रघर शिष्यो की परम्परा में ३ केवली' तरफ देवो की उडती हुई मुद्रा में बनाया जाना प्रादि हए जिनका उल्लेख कर आये है वे भगवान महावीर के लक्षणो से मुझे ऐसा अनुमान हुआ कि क्या यह सामान्य अनुबद्ध केवली थे। इनके सिवाय जो ७०० केवली समव- केवली की मूर्ति है ? और "चरण कमल तल कमल है" शरण मे थे वे अननुबद्ध केवली थे उनमे सभी केवली "नभ ते जय जय वानि" की उक्ति के अनुसार तो इनके अपनी-अपनी आयु के अन्त मे सिद्धपद को प्राप्त हुए होगे। चरणों के पास कमल दोनों ओर बनाए गये और जयकार यद्यपि इनका समयोल्लेख नही है तथापि पचम काल को बोलते हुए आकाश में देवता दिखाए गये है। आयु १२० वर्ष कही है तब इनकी प्रायु भी अधिक से
इस कल्पना के आने पर मैने कुछ ऐसा ही निर्णय अधिक इतनी अथवा चतुर्थकाल में इनका जन्म होने से
कर एक लेख ७८ वर्ष पूर्व जैन सदेश में प्रकाशित किया कुछ वर्ष अधिक भी रही हो तो भी भगवान के मुक्तिगमन
था। इस लेख के खडन में २ लेख आये थे। प्रथम लेख काल के बाद प्रथम शताब्दी मे ही इनका मुक्तिगमन
श्री 'नीरज' सतना का था कि मूर्ति के आसन के दोनों सिद्ध है।
मोर गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी की मूनि है साथ ही इन ७०० केवली भगवानों मे अन्तिम केवली श्री
जटाओं के चिन्ह मूर्ति पर है। अत. मूर्ति श्री आदि श्रीवर स्वामी थे जिनका तिलोयपण्णत्ति मे कुण्डलगिरि
तीर्थकर की होनी चाहिए भले ही चिन्ह के स्थान पर से मुक्तिगमन बताया गया है।
चिन्ह न हो अत: श्रीधर केवली की मूर्ति उसे मानना ग्रंथ में उक्त उल्लेख पढ़ने पर मेरा ध्यान सर्वप्रथम प्रमाणित नहीं होता। दमोह (म.प्र.) के निकट स्थित कुण्डलपुर पर गया यह मैंने स्थान का पूनः निरीक्षण किया और मुझे नीरज पर्वत कुण्डलाकार (गोल) है अतः कुण्डलगिरि हो सकता होकार
जी का कथन' सर्वथा उपयुक्त जचा और यह निश्चित है । अन्यत्र ऐसा पर्वत नहीं है और न ऐसे ग्राम को ही
किया कि मुख्य मूर्ति भगवान आदिनाथ की है। १७५७ प्रसिद्धि है।
में ब्र. नेमिसागर ने मूल मे चिन्ह न देखकर केवल सिहासन कुण्डलपुर के पर्वत पर मुख्य मन्दिर में जो वृहत् पद्मासन १२ फुट उत्तुग मूर्ति विराजमान है वे बड़े बाबा १. अनेकान्त अप्रेल १६६४ पृ० ४३.