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अनेकान्त
दमण वय मामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । बभारंभ परिगह प्रणमण उद्दिदु देसविरदो य ॥
यहा छठी प्रतिमा का उल्लेख रायभत -रात्रिभक्तके नाम से हुआ है । मुक्ति और भक्त दोनों शब्द पर्यायबाकी है, उनका जैसे भोजन होता है ने ही सेवन
भी होता है । प्रकृत मे रात्रिभतव्रत से रात्रि में स्त्रीसेवन का व्रत रखना - दिन में उसका परित्याग करना, यह अभिप्राय निकालना कुछ क्लिष्ट कल्पना के प्राश्रित
और वसुनन्दिश्रावकाचार१ प्रादि के आधार से सागारधर्मामृत में उपलब्ध होता है२ ।
C. प्रा. समन्तभद्र ने सामान्य से श्रावक के दर्शनिक आदिग्रहों का ही निर्देश किया है। परन्तु पं० श्राशाधर ने प्रथमतः उसके पाक्षिक, नैष्ठिक और माघक इन तीन भेदों का उल्लेख किया है४ और तत्पश्चात् उनके द्वारा उक्त दर्शनिक प्रादि ग्यारह भेद उनमे से नैष्ठिक धावक के निर्दिष्ट किये गये है। सम्भवतः पाक्षिक आदि उक्त तीन भेद समन्तभद्र के समय तक नहीं रहे है।
१०. रत्नकरण्डक में छठे श्रावक का उल्लेख रात्रिभक्तिविरत के नाम से करके उसके स्वरूप मे कहा गया है कि जो रात्रि में अन्न, पान, खाद्य भोर लेह्य चारो प्रकार के भोजन को नहीं करता है वह रात्रिभुक्तिविरत कहलाता है । पर सागारधर्मामृत में उसका रात्रि मक्तव्रत के नाम से उल्लेख करके यह कहा गया है कि जो निष्ठापूर्वक पूर्व पाच प्रतिमाओं का परिपालन करता हुआ मन, वचन काय और कृत, कारित, अनुमोदना से दिन मे श्री का उपभोग नही करता है वह रात्रिभक्तव्रत श्रावक होता है७ ।
मा. कुन्दकुन्द विरचित चारिप्रभूतमे सजे मे मागार संयमचरण- देशवारिश का वर्णन किया गया है। वहां देशचारित्र से सम्बन्धित निम्न गाथा उपलब्ध होती है
१. वसु० भा० ३८०-४५८ ।
२. सा० ६०२, २३-३४ ।
३. २० क० १३६ ।
४. मा० ० १-२० ।
५. सा० ध० ३-१ ।
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२० क० १४२ ।
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सा० ० ७ १२ । ( आगे श्लोक ७ १५ मे रत्नकरuse के उक्त श्रभिमत की भी सूचना इस प्रकार कर दी है— निरुच्यतेऽन्यत्र रात्रौ चतुराहारवर्जनात् । ) ८. समवायाग सूत्र में ग्यारह प्रतिमानों के नाम इस
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प्रकार निविष्ट किये गये हैं
एक्कारस उवासगप डिमाम्रो प० ( पण्णत्ताओ)
है । इसमें स्त्री का अध्याहार करना पड़ता है । पर उससे रात्रि मे भोजन का व्रत रखने रूप अर्थ का बोध सरलता मे हो जाता है ।
ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक श्रावक के विषय मे रत्नकरण्डक में इतना मात्र कहा गया है कि जो गृहवास को छोड़कर मुनि प्राथम में चला जाता है और वहा गुरु के समीप मे व्रतों को ग्रहण करके तपश्चरण करता हुआ भिक्षावृत्ति से भोजन करता है तथा वस्त्रखण्डलगोटी मात्र को धारण करता है वह उत्कृष्ट श्रावक होता है१०१ उधर सा. ध. में कहा गया है कि जो पूर्व व्रतो के श्राश्रय से मोह को मन्द करता हुम्रा उद्दिष्ट भोजन को छोड देना है वह अन्तिम उत्कृष्ट श्रावक होता है११ | आगे चलकर उसके दो भेदो का निर्देश करके उनमें यह भेद बतलाया गया है कि प्रथम उत्कृष्ट धात्रक तो बालों को
तo ( त जहा ) – मरणसावर १ कयव्वयक मे २ सामात्यकडे ३ पीसहोववासनिरए ४ दिया बयाने रति परिमाणकडे ५ दिनावि राम्रो वि बभयारी अमिलाई डिमोई मोलिकडे सचितपरिणाए ७ धारभरिए पेमपरिणाए उभित ८ ६ परिणाम १० समणभूए ११ श्रावि भवइ समणाउमो । समवा० ११ पृ० १८-१६ ।
१. कस्मात् ? रात्री निधि स्त्रीसेवाया वर्तनात् रात्री भक्त स्त्रीभजन व्रतयति रात्रिभक्तच्यत इति तच्छब्दस्य व्पादनात् । (सा. ध. स्त्रो. टीका ७-१५ ) १०. २० क० १४७ ( मा० ६० का ७ ४७वा श्लोक इससे पूर्णतया प्रभावित है ) ।
११. सा० घ० ७-३७ ।