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अनेकान्त
पूरे एक अध्याय (८वे) के द्वारा उसका विस्तार के साथ मूढतापो से रहित होना चाहिए । इन मूढतानों मे एक वर्णन किया गया है । यहां सल्लेखना मे अधिप्ठित श्रावक देवमूढता भी है। उसका स्वरूप बतलाते हुए कहा गया को उस में दृढ़ करने के लिए विविध प्रकार से उपदेश द्वारा है कि राग-द्वेष से मलिनता को प्राप्त हुए देवो की अभीष्ट उत्माहित किया गया है।
फल की प्राप्ति की अभिलापा से जो प्राराधना की जाती १२. रत्नकरण्डक में दर्शनिक श्रावक का स्वरूप इस है, यह देवमूढता है३ । तात्पर्य यह कि सम्यग्दृष्टि प्राणी प्रकार कहा गया है
ऐसे देवो की उपासना-पूजा-भक्ति प्रादि-किसी भी सम्यग्दर्शनशुद्धः ससार-शरीर-भोगनिविष्णः ।
अवस्था में नही करता। पञ्चगुरुचरणशरणो वर्शनिकस्तत्त्वपथगहाः१ ॥१३७॥ इस बात को ५० प्राशाधर भी स्वीकार करते है।
इसमें उपयुक्त सभी विशेषण प्राय सा. ध. मे निर्दिष्ट उन्होने अपने अनगारधर्मामृत मे कहा भी है कि मुनि दर्शनिक श्रावक के लक्षण मे (३,७-८) उपलब्ध होते है। की तो बात ही क्या है, किन्तु श्रावक को भी सयम से यथा-पाक्षिकाचारसंस्कारदृढ़ीकृतविशुद्धदृक्, भवाङ्ग-भोग- हीन माता-पिता, गुरु, राजा व मत्री ग्रादि, वेषधारी साधु, निविण्ण., परमेष्ठिपदैकधीः ।
कुदेव-रुद्र आदि तथा शासनदेवता प्रादि-और वैसा श्रावक १३. प्राचार्य समन्तभद्र ने 'स्वगुणः पूर्वगुणः सह भी; इनमे से किसी की भी वन्दना नही करना चाहिये। सतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः'२ कहकर यह अभिप्राय व्यक्त किया पर इस कथन में श्रावक से अभिप्राय उनका नैष्ठिकहै कि मागे को प्रतिमानों का परिपालन यदि पूर्व प्रति- प्रतिमाधारी-श्रावक का रहा है, पाक्षिक श्रावक का मामी की पूर्णता के साथ होता है तो उनकी प्रतिष्ठा नही-पाक्षिक श्रावक वैसा कर सकता है५ । किन्तु प्रा. ममझना चाहिए-अन्यथा उनकी स्थिति सम्भव नहीं है। समन्तभद्र तो असयतसम्यग्दृष्टि के लिए भी उसका
इस प्राशय को पं० पाशाधर ने सा. ध. में भी सर्वथा निषेध करते है६ । श्लोक ३-५ के द्वारा व्यक्त कर दिया है । रत्नकरण्डक से विशेषता
३. वरोपलिप्सयाशावान् राग-द्वेषमलीमसा. । उपर्युक्त जो थोड़े-से उदाहरण दिये गये है उनसे
देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥र.क. २३ .
यद्यपि इसकी टीका मे प्रा. प्रभाचन्द्र ने यह स्पष्टीनिश्चित है कि पं० पाशाधर ने प्रा. समन्तभद्र विरचित
करण किया है कि यदि सम्यग्दृष्टि शासमदेवता के प्रस्तुत रत्नकरण्डक को एक महत्त्वपूर्ण श्रावकाचार ग्रन्थ
नाते उनकी पूजा-भक्ति आदि करता है तो इससे माना है और तद्गत बहुत-से विधि-विधानो को अपने
उसके सम्यग्दर्शन की विराधना नही होती-उसकी सागारधर्मामत मे यथोचित स्थान दिया है। पर वे तद्गत
विराधना तो स्वार्थवश वैसा करने पर ही होती है; सब विधानों से सहमत नहीं हो सके। इसका कारण देश
पर प्रा. समन्तभद्र का भी वैसा अभिप्राय रहा है, काल की परिस्थिति ही समझना चाहिये । इसीसे उन्होने
कहा नहीं जा सकता; क्योकि, उन्होने सर्वथा ही कहीं तो रत्नकरण्डक से कुछ भिन्न मत प्रगट किया है
उसका निषेध किया है। और कहीं तद्गत विधान को कुछ विकसित किया है। जैसे
४. श्रावकेणापि पितरौ गुरू गजाप्यसंयता । १. रत्नकरण्डकोक्त सम्यग्दर्शन के लक्षण मे 'त्रिमूढा
कुलिगिनः कुदेवाश्च न वन्द्याः सोऽपि सयतैः । पोढ' एक विशेषण दिया गया है (श्लोक ४)। तदनुसार
(मन. ध. ८-५२) सम्यग्दर्शन में प्राप्त, प्रागम और पदार्थों का श्रद्धान तीन
तान ५. प्रापदाकुलितोऽपि दर्शनिकस्तन्निवृत्त्यर्थ शासनदेवता१. तत्त्वपथगृह्यः-तत्त्वानां प्रतानां पंथा मार्गा. मद्यादि- दीन कदाचिदपि न भजते, पाक्षिकस्तु भजत्यपीत्येवनिवृत्तिलक्षणा अष्टमूलगुणाः ते गह्याः पक्षा यस्य । मर्थमेक ग्रहणम् । (सा. घ. स्वो. टीका ३-७)
(प्रभा. टीका ५-१६) ६. भयाशा-स्नेह-लोभाच्च कुदेवागम-लिङ्गिनाम् । २. र. क. १३६
प्रणाम विनय चैव न कुयु: शुद्धदृष्टयः ।।र. क. ३०.