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महान सन्त भट्टारक विजयकीर्ति डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पो-एच. डी.
१५वीं शताब्दी में भट्टारक सकलकीति ने गुजरात कारी स्वीकृत किया. और अपने ही समक्ष इन्हे भट्टारक पद एवं राजस्थान में अपने त्यागमय एवं विद्वत्तापूर्ण जीवन से देकर स्वय साहित्य सेवा में लग गये। भट्टारक संस्था के प्रति जनता की गहरी प्रास्था प्राप्त विजयकीति के प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में अभी करने में महान सफलता प्राप्त की थी। उनके पश्चात् कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है लेकिन इनके दो सूयोग्य शिप्य प्रशिप्यों ने भ० भुवनकीति एवं भ. शुभचन्द के विभिन्न गीतों के प्राधार पर ये शरीर भ. ज्ञानभूषण ने उसकी नींव को और भी दृढ करने में से कामदेव के समान सुन्दर थे। इनके पिता का नाम अपना योग दिया। जनता ने उन साधनों का हार्दिक साह गगा तथा माता का नाम कुपरि था। स्वागत किया और उन्हे अपने मार्गदर्शक एवं धर्म गुरू के साहा गंगा तनये करउ विनये शुद्ध गुरू। रूप में स्वीकार किया। समाज में होने वाले प्रत्येक शुभ वसह जाते कुप्ररि मातं परमपरं । धार्मिक एवं सांस्कृतिक तथा साहित्यिक समारोहो मे साक्षादि सुबद्धं जोकोह शुद्ध दलित समं । इनका परामर्श लिया जाने लगा तथा यात्रा सघो एव सुरसेवत पायं मारीत मायं मथित तमं ॥१०॥ बिम्बप्रतिष्ठानों में इनका नेतृत्व स्वत. ही अनिवार्य मान
-शुभचन्द्र कृत गुरू छन्द गीतिका । लिया गया। इन भट्टारको के विहार के अवसर पर
बाल्यकाल मे ये अधिक मध्ययन नहीं कर सके थे धार्मिक जनता द्वारा इनका अपूर्व स्वागत किया जाता लेकिन भ० ज्ञानभूषण के संपर्क में प्राते ही इन्होंने और उन्हे अधिक से अधिक सहयोग देकर उनके महत्व सिद्धान्त ग्रन्थों का गहरा अध्ययन किया। गोमट्टसार को जनसाधारण के सामने रखा जाता। ये भट्टारक भी लब्धिसार, त्रिलोकसार प्रादि सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रतिजनता के अधिक से अधिक प्रिय बनने का प्रयास करते रिक्त न्याय, काव्य व्याकरण प्रादि के प्रथों का भी गहरा थे। ये अपने सम्पूर्ण जीवन को समाज एवं संस्कृति की अध्ययन किया और समाज मे अपनी विद्वत्ता की अद्भुत सेवा में लगाते और अध्ययन, अध्यापन एवं प्रवचनो द्वारा छाप जमा दी। देश में एक नया उत्साहप्रद वातावरण पैदा करते ।
लब्धि सुगमट्टसार सार त्रैलोक्य मनोहर। विजयकीति ऐसे ही भट्रारक थे जिनके बारे में अभी कर्कश तर्क वितर्क काव्य कमलाकर दिणकर । बहुत कम लिखा गया है। ये भट्रारक ज्ञानभूषण के शिष्य श्रीमलसंधि विख्यात नर विजयकीति वाहित करण। थे और उनके पश्चात भट्टारक सकलकीति द्वारा प्रतिष्ठा
जा चांवसूर ता लगि तयो जयह सूरि शुभचंद्र सरण। पित भट्टारक गादी पर बैठे थे। इनके समकालीन एव इन्होंने जब साधु जीवन में प्रवेश किया तो ये अपनी बाद में होने वाले कितने ही विद्वानो ने अपनी ग्रंथ युवावस्था के उत्कर्ष पर थे। सुन्दर तो पहले से ही ये प्रशस्तियो मे इनका पादरभाव से स्मरण किया है। किन्तु यौवन ने उसे और भी निखार दिया। इन्होंने साधु इनके प्रमुख शिष्य भट्टारक शुभचन्द ने तो इनकी प्रत्य- बनते ही अपने जीवन को पूर्णतः संयमित कर लिया। धिक प्रशंसा की है और इनके संबंध में कुछ स्वतन्त्र गीत कामनाओं एवं षटरस व्यंजनो से दूर हट कर ये साधु भी लिखे है। विजयकीति अपने समय के समर्थ मट्रारक जीवन की कठोर साधना में लग गये। और ये अपनी थे। उनकी प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता काफी अच्छी थी, साधना में इतने तल्लीन हो गये कि देश भर में इनके बही बात है कि ज्ञानभूषण ने उन्हें अपना पदाधि- चरित्र की प्रशंसा होने लगी।