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महाकवि समयसुदर और उनका दानशील तप भावना संवाद
सत्यनारायण स्वामी एम. ए.
राजस्थान में एक कहावत है-समयसुदर रागोतड़ा, रचना है। उनके अपरिमित फुटकर गीत भी बड़े महत्त्वकुंभ राई रा भीतड़ा' अर्थात् जिस प्रकार महाराणा कुभा पूर्ण है । महाकवि के संबंध में विस्तृत जानकारी एवं द्वारा बनवाये हुए सपूर्ण मकानों, मदिरों, स्तंभों और उनको लघु रचनाओं के रसास्वादन के लिए श्री अगरशिलालेखों आदि का पार पाना कठिन है उसी प्रकार चद नाहटा और भंवरलाल नाहटा संपादित 'समयसुदर समयसदर जी विरचित समस्त गीतों का पता लगा पाना कृति-कुसुमाजली' दृष्टव्य है । यहा प्रस्तुत है उनकी अनेक भी दुष्कर कृत्य है। उनके गीत अपरिमित है।
लघुकृति 'दान शील तप भावना सवाद' का संक्षिप्त कवि-परिचय
अध्ययन । __ महाकवि समयमदर १७हवी शताब्दी के लब्धप्रतिष्ठ कृति-परिचय राजस्थानी जैन कवि हुए हैं। उनका जन्म पोरवाल प्रस्तुत कृति की रचना म० १६६२ में राजस्थान के जातीय पिता श्री रूपसिह और माता लीलादेवी के यहां भूतपूर्व प्रामेर (जयपुर) राज्य के सागानेर नगर मे हुई१। अनुमानतः सवत् १६१० वि० मे माचोर (सत्यपुर) में इसके दो अपर नाम श्री अगर चद भंवरलाल नाहटा के हमा । बाल्यावस्था में ही उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर क्रमश ।
अनुसार 'दान शील तप भावना सवाद शतक' और श्री महोपाध्याय पद प्राप्त किया। मधुर स्वभावी महाकवि
विनयसागर के अनुसार दानादि चौढालिया' है यद्यपि अपनी अप्रतिम विद्वत्ता से अपने जीवन काल में ही प्रशसिन
स्वय महाकवि ने इसका नाम 'दान शील तर भाबना हो चुके थे। उनने भारत के अनेक प्रदेशों का भ्रमण
सवाद' ही रखा है
दान सोल तप भावना रे रास रच्यउ सगदो रे। करके अपनी नानाविध रचनायो पोर मदुपदेशो द्वारा तत्रस्य जनसमुदाय को कल्याणपथ की ओर अग्रसर किया।
भणतां गुणता भावसुंरे, रिद्धि समृद्धि सुप्रसादो रे ।। मौभाग्यवश महाकवि ने दीर्घायु प्राप्त की थी। मं०
॥ ढाल ५ छद १०॥ १७०३ में उन्होंने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अहमदा
पाच दालो में प्राबद्ध कुल एक सौ एक छदों की इस सापक नश्वर देह को त्याग कर स्वग की सोने में बासठ सम रे. सांगानेर मझार । ओर प्रस्थान किया। अपनी इस दीर्घायु में महाकवि ने
पद्म प्रभू सुपसाउ ल रे, एह थुण्यो अधिकारो रे ॥ सस्कृत और राजस्थानी को अनेक रचनाएं की। "इनकी
-स. कृ. कु. मे विनयसागरजी का निबंध, पृ० ५६ योग्यता एव बहुमुखी प्रतिभा के सबंध में विशेष न कह
[नाहटा-बंधुनों द्वारा प्रकाशित रास मे इसका कर यह कहें तो कोई प्रत्युक्ति न होगी कि कलिकाल
रचना-संवत् 'सोलइ सइ छासठि' छपा है जो सभवतः सर्वज्ञ हेमचद्राचार्य के पश्चात् प्रत्येक विषय मे मौलिक
प्रूफ रीडिंग की भूल रही है, अन्यथा अपने 'सीतासजनकार एवं टीकाकार के रूप मे विपुल साहित्य का
राम-चौपाई' की भूमिका मे (पृ. ४०) उन्होंने इसनिर्माता अन्य कोई शायद ही हुमा हो।" 'सीताराम
का रचना सं० १६६२ ही लिखा है। श्री देसाई चौपाई' नामक वृहत्काय जैन-रामायण कवि की प्रतिनिधि
(मोहनलाल दलीचद) ने भी अपने निबंध 'कविवर १. गहोपाध्याय विनयसागरः 'समयसुंदर कृति-कुसुमांजलि' समयसुंदर' (आनंदकाम्य महोदधि मौ०७, पृ. ३५) गत निबंध 'महोपाध्याय समयसुंदर', पृ० १.
मे इसी संवत् का उल्लेख किया है।]