Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 201
________________ १८४ अनेकान्त श्रावक थे। इनके पूर्वज वयाना (श्रीपथ-भरतपुर) में थे४ । माप का जन्म शाहाबाद जिले के वारा नामक गांव रहते थे। इनके पितामह श्रवणदास कारणवश वयाना में गंगा नदी के किनारे संवत १८४८ में माघ शुक्ला १४ छोड़कर प्रागरे मे वस गये थे। श्रवणदास के पुत्र नन्द- सोमवार को पुष्य नक्षत्र, कन्यालग्न भानु अंश २७ के लाल को सुयोग्य जानकर पडित हेमराज ने अपनी विदुषी शुभ मुहूर्त में हुपा था। प्रापके वंशधर वारा छोड़कर पुत्री जैनुलदे का विवाह कर दिया था। बलाकीदास काशी मे आकर रहने लगे थे। कवि के पिता का नाम इन्हीं के पुत्र थे । माता का अपने पुत्र पर विशेष अनुराग धमत्र पर विशेष धर्मचन्द्र था। धर्मचन्द्र बड़े धर्मात्मा और गण्यमानपुरुष था। कवि ने भी माता की विशेष प्रशंसा की है। कवि थे। वे शरीर से हृष्ट-पुष्ट और निर्मम थे। और छोटे के गुरु अरुणमणि थे। जो भ० श्रुतकीति के प्रशिष्य भाई का नाम था महावीरप्रसाद । संवत १८६७ में १२ पौर बुधराघव के शिष्य तथा कान्हरसिंह के पुत्र थे। वर्ष की वय मे वृन्दावन अपने पिता के साथ काशी पाये इन्होंने अपना अजितपुराण सं. १७१३ में जहानावादजय- थे और काशी मे बाबर शहीद की गली में रहते थे५ । सिंहपुरा (नई दिल्ली) के पार्श्वनाथमन्दिरमें बनाया था। प्रापके वंशधर पहले काशी में रहते थे। पश्चात् वे वारा मरुणमणि ने कवि को प्रेम से विद्या पढाई थी, कवि ने चले गये थे और फिर वारा से काशी में रहने लगे थे। अपनी माता की प्रेरणा से प्रश्नोत्तर श्रावकाचार स० वन्दावन अपने पिता के समान पद्मावती देवी के भक्त थे १७४७ मे समाप्त किया था, इस थावकाचार के तीन और मत्र-तत्रादि में भी इनका विश्वास था। हिस्से जहानाबाद मे और चौथा पानीपत में समाप्त हुआ कवि की माता का नाम सिताबी और पत्नी का नाम था३। और पाण्डवपुगण स. १७५४ में बनाया था। रुक्मणी था। इनकी पत्नी बडी धर्मात्मा और पतिव्रता कवि की अन्य क्या कृतिया है यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। थी । आपके दो पुत्र थे, अजितदास और शिखर चन्द्र । बाईसवे कवि वृन्दावन हैं। जो अग्रवाल गोयल गोत्री ४ अगरवाल कुल गोल गोत्र वृन्दावन धरमी । मरुन-रतन पंडित महा, शास्त्र कला परवीन । धरमचन्द जसु पिता, शिताबो माता मरमी ।। -प्रवचनसार प्रशस्ति बुलचन्द तिनपं पतयो, ग्यान अंश तहा लीन ॥१६ ५ वाराणसी पारा ताके वीच वस वारा, बहुत हेतकरि अरुन नै, दयो ज्ञान को भेद । तब सुबुद्धि घट मे जगी, करि कुदुद्धि तम छेद ।।२० सुरमरि के किनारा तहा जनम हमारा है। ऐसे सुत + अधिक ही, करै जु माता प्रीति । ठारं पडताल माघ मेत चौदै सोम पुष्प, सब चिन्ता सुत की हर, यहै माय की रीति ॥२१ कन्या लग्न भानु प्रश सत्ताईस धारा है । -प्रश्नोत्तर श्रावकाचार साठ माहि काशी प्राये तहा सत्संग पाये, २ रस-वृष-यति-चन्द्र ख्यात सवत्सरे (१७१३) स्मिन् । जैनधर्म मर्म लहि भर्म सब डारा है। नियमित सित वारे वैजयती-दशम्या । सली सुखदाई भाई काशीनाथ आदि जहा, रचितममलवाग्मि, रक्त, रत्नेन तेन ।।४।। अध्यातम वानी की अखड वहै धारा है । -प्रवचनसार प्रश० पृ. ११० । मुद्गले भूभुनां श्रेष्ठे राज्येऽवरगसाहि के । कवि ने छन्द शतक मे अपनी गुणवती पत्नी का जहानाबाद नगरे पार्श्वनाथ जिनालये ॥४१॥ प्रादर्श सामने रखकर मजुभाषिणी छन्द का उदाहरण -अजितपुराण प्रशस्ति बनाया जान पड़ता है:३ "सत्रह से सैताल में, दूज सुदी वैशाख । 'प्रमदा प्रवीन व्रतलीन पावनी, बुद्धवार भै रोहिनी, भयो समापत भाख । दिढ शील पालि कुलरीति राखिनी । तीन हिस्से या ग्रंथ के, भये जहानावाद । जल अन्न शोषि मुनि दान दायिनी, चौथाई जलपथ विष, वीतराग परसाद ।। वह धन्य नारि मृदुमजु भाषिनी ॥ -प्रश्नोत्तर श्रावकाचार प्रशस्ति -छन्द शतक, वृन्दा. पृ.८५

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