Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 202
________________ अग्रवालों का जन संस्कृति में योगदान १८५ इनमें अजितदास भी अपने पिता के ही समान कवि हैं, उनसे उनकी अन्तर्व्यथा की स्पष्ट झलक मिलती है। थे। इन्होंने अपने पिता की मात्रा से हिन्दी में जैन रामा- कवि वन्दावन माशु कवि थे, उनमें काव्य रचने की यण की रचना ७१ सर्ग तक कर पाई थी, कि असमय मे स्वाभाविक प्रतिभा थी । कविता में स्वाभाविकता और देवलोक हो गया। मापकी यह रामायण बाबू हरिदासजी सरलता है। पारा वालों के पास थी। कवि की ससुराल काशी में प्रापकी निम्न छह रचनाएं है-१ प्रवचनसार ठठेरी बाजार में थी। इनके ससुर बड़े धनिक व्यक्ति थे। २ चतुर्विशति जिनपूजा, तीस चौबीसी पाठ, छन्द शतक, उनके यहां उस समय टकसाल का काम होता था। एक महत्पाशा केवली और वृन्दावन विलास । बह कवि की दिन किरानी अंग्रेज इनके ससुर की टकसाल देखने के अनेक फुटकर रचनामो का संग्रह है। कवि की ये सभी लिए माया, तब उसने कहा कि हम तुम्हारा कारखाना कृतियां महत्वपूर्ण है। पूजा-पाठ प्रति सुन्दर बन पड़े हैं। देखना चाहते हैं कि उसमें सिक्के कैसे तैयार होते हैं। उनमें यमकालंकार मादि का चित्रण है, कविता सुन्दर वृन्दावन ने उसे टकसाल नहीं दिखाई, इससे वह नाराज और मनमोहक है। इनमें छन्द शतक महत्व का पंथ है, होकर चला गया। दैवयोग से वही अंग्रेज कुछ दिनों बाद इसमें हिन्दी के सौ छन्दोके बनाने की विधि सोदाहरण दी काशी का कलेक्टर होकर पाया। उस समय वृन्दावन हुई है। उनके उदाहरण उसी छन्द में प्रकित है। छन्दसरकारी खजांची के पद पर प्रासीन थे। साहब बहादुर शतक कवि ने स. १८१८ मे अठारह दिन में अपने ज्येष्ठ ने प्रथम साक्षात्कार के समय ही इन्हे पहिचान लिया, पुत्र अजितरास के पढने के लिए बनाई है, जैसा कि उसके और बदला लेने का विचार किया। यद्यपि कविवर निम्न प्रशस्ति पद्यो से प्रकट है :अपना सब कार्य बड़ी ईमानदारी से करते थे, पर जब जितवास निज सुमन के पठन हेत अभिनंद। अफसर ही विरोधी हो, तब वह कितने दिन बच सकता श्रीजिनिब सुखवन्द को रच्यो छद यह वृन्द ।।११५ है। पाखिर साहब ने एक जाल बना कर कवि को तीन पौषकृष्ण चौदस सुदिन, ताविन कियो प्ररभ । वर्ष की जेल की सजा दे दी। कवि ने उसके अत्याचारों प्रदारह दिन में भयो, पूरन शम्नबंभ ॥११६ को शान्ति से सहा, कुछ दिन के बाद कवि-"हो दीन + + + बंधु श्रीपति करुणा निधान जी। अब मेरी व्यथा क्यो न निधान जी। अब मेरा व्यथा क्यान महारह सौ ठान, संवत विक्रम भूप । हरो वार क्या लगी।" प्रादि स्तुति बना कर गा रहे थे। दोज माघ कलिको भयो, पूरन छंद अनूप ।।११८ । उस समय उस अंग्रेज ने उनकी तन्मय दशा को देखा, प्रवचनमार कवि की सुन्दर और भावपूर्ण कृति है, और पूछा कि तुम क्या गा रहा था। तब उन्होने कहा उसे कवि ने तीसरी बार मे स. १६०५ मे उदयराज के कि मैं परमात्मा की स्तुति कर रहा था। और उन्हें बाद उपकार से बनाकर समाप्त किया है। चतुर्विशति जिन मे उसने रिहा कर दिया। तब से वह स्तवन 'सकटमोचन पूजा का समय प्रेमी जी ने वृन्दावन की प्रति पर से स. स्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। १८७५ कार्तिक कृष्ण प्रमावस्या गुरु बतलाया है१ । तीस उक्त घटना के संसूचक अनेक उल्लेख मिलते हैं, चौबीमी पूजापाठ स. १८७६ माघ शुक्ला पचमीको पूर्ण पाठकों की जानकारी के लिए एक दो का उदाहरण निम्न प्रा है :-दरय तत्व गुण केवल सु, सवत विक्रमवान । प्रकार है : माघ धवल पांच नवल, पूरण परम निधान ।। १अब मोपर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है। प्रत्यासाकेवली का रचनाकाल सं. १८६१ होता है इन्साफ करो मत देर करो सुखवन्द भरो भगवाना है। जैसा कि निम्न दोहे से प्रकट है : वृ. वि..२ संवत्सर विक्रम विगत, चन्द्र रध्र दिनचन्द । २ वश्चन्द, नन्दवन्द को, उपसर्ग निवारो। वृ.वि.प. २० माघ कृष्ण प्राठे गुरू, पूरन जयति जिनन्द ।। जान पड़ता है कवि ने जेल में अनेक स्तवन बनाये १ देखो, वृन्दावन विलास की प्रस्तावना ।

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