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अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान
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जाति भी भिन्न-भिन्न है। जगतराम खडेलवाल जातिके थे नव मतसं नव बोई प्रषिक सवत तुम जाणी। पौर उनका गोत्र था 'गोदिका'। यह गोत्र खडेलवालो मे ही माघ मास विम पंचमि तम नर रिषि सुणि माणों। होता है अग्रवालों में नही। राजस्थान के प्रथभण्डारो की गरग गोत है अग्रवाल, धावक व्रत पाले। सूची भाग ४ के पृष्ठ ५८१ मे 'प्रातभयो सुमरि देव पुण्य- वेश मलकह भोजराज सुत है पृथिवी पाल । काल जात रे' पद का कर्ता जगतराम गोदिका बतलाया नगर तेजपुर सुत के सो पायो पाणीपथ । है। जगतराम के अनेक पद मिलते है उनमें से कुछ पदो श्रुतपंचमी को रास कियो, पडित तुलसी कथ। मे 'जगराम' नाम भी पाया जाता है। प्रतएव जगतराम नर नारि जे रास सहि, मन वच रुचि गावहिं। और जगराम दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते है । किन्तु सुख सपति मानव लहै वांछित फल पावहि ॥ कार जिन जगतराय कवि का परिचय दिया गया है वे बीमवे कवि भाऊ है । जो तहनगढ़ या त्रिभुवनगिरि अग्रवाल हैं । वे जगतराम से भिन्न है। कवि जगतराम के निवासी थे। इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र 'गर्ग' ने सं०१८४६ में 'बृहत् निर्वाण विधान' नाम का ग्रन्थ था। भाऊ के पिता का नाम मनुसाह और माता का नाम बनाया है, उसमे यत्र-तत्र त्रिलोकसार की गाथाय उद्धृत करिया कमारी था।इनकी इस समय तक चार रचनामों है । वे वही हैं या दूसरे, यह विचारणीय है। का पता चला है-१. प्रादित्यवार कथा, २. नेमिनाथरास,
डा. प्रेमसागर जी ने हिन्दी जैन भक्ति काम्य और ३ पार्श्वनाथ कथा, जो जयपुर के तेरापंथी मन्दिर के कवि के पृष्ठ २५५ मे जगतराय को जगतगम बतला कर गुच्छक नम्बर १३ मे दर्ज है लिपि सं० १७०४ है। जगतराम की रचना को जगतराय की रचना बतलाई है। ग्रय सूची भा० २ पृ. ३५५ । ४थी रचना पुष्पदन्त पूजा डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल भी दोनो को एक मान है। कवि ने अपनी रचनायो में रचनाकाल नहीं दिया। रहे है । किन्तु ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि जगतराय इस कारण उनका ममय निश्चित बनालाना संभव नहीं है। और जगतराम दोनो ही विद्वान जुदे जुदे है। एक नही फिर भी इनका ममय वि की १६वी शताब्दी जान पडता
है। डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल को मादित्यवार जगराज और जगरूप नाम के दो विद्वानों का और कथा की प्रति स. १६२६ की लिखी हुई मिली है। इससे भी उल्लेख मिलता है, जो संभवत. भिन्न भिन्न है। भी कवि का ममय १६ तथा सत्रहवीं शताब्दी का जगराज ने सकलकीति की सुनापितावनी का पद्यानवाद प्रथम चरण हो सकता है। मं० १७०६ मे बनाकर समाप्त किया है। और जगरूप इक्कीसवें कवि वू नचन्द या बुलाकीदास है । इनका ने श्वेताम्बर चौरासी बोल की रचना मं० १८११ में जन्म घागरा मे हुमा था। यह गोयल गोत्रीय अग्रवाल बनाकर समाप्त की थी, यह रचना दिल्ली के नया मन्दिर
अग्रवाल यह कियो बखान, धर्मपुरा के शास्त्र भण्डार मे सुरक्षित है।
कंपरि जननि तिहुवण गिरि थान । उन्नीसवें कवि पृथ्वी पाल है, जो अग्रवाल गर्ग गोत्रीय
गरगाह गोत मनू को पूत, धावक थे, और तेजपुर के रहने वाले थे। वे पानीपत भयो कविजन भगति सजूत । (परिणपद) पाये मोर वहां उन्होने भ० सहस्रकीति के
कारण कथा करण मति भई, चरण कमलो को नमस्कार कर स. १६६२ के माघ महीने
त्यो यह धर्म कबा अरठई। की कृष्णा पंचमीके दिन 'थुत पचमी रास' बनाकर ममाप्त मन धरि भाव सुने जो कोई, किया था। जैसा कि उसके निम्न अन्तिम प्रशस्ति पद्यो सो नर सुरग देवता होई । से प्रकट है :
भाऊ भणे सुकर जोडि, सहस कीति गुरुवरण कमल नमि रास कियोबुद्धि। जिन पडित मोहि लावहु खोडि। पंडित जम मतिहास करो, बोड़ी मेरी बुद्धि।
-मादित्यव्रत कथा