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कवि देवीदास का परमानन्द विलास
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पुकार पच्चोसो
भव देख्यो पद संसार महि बिन बरसन जेनर रहे। भक्तिरस से प्रोत-प्रोत पुकार पच्चीसी में "वेर ही सो संत पुरुष इह जानकं चल सबउ तिनि सो कहै ।। वेर पुकारत ही जनकी विनती सुनिये जिन राई' पद बद्धि बावनीप्रत्येक पद के अन्त में पाया है। कवि अपने इष्ट देव से इसमें तेईसा' गुरू उत्तर मवैया, गतागत प्रादि के माध्यम प्रार्थना कर रहा है
से कवि ने सामारिक दशाका वर्णन करते हुए पच परमेष्ठी देरि करौ मति श्रीकहनानिधि ज पति राखन हार निकाई।
की स्तुति की है। पचपरमेष्टीकी स्तुति करते समय इष्ट देव जोग जुरे क्रमसौं प्रभ न यह न्याय हजर भई तुम पाई ॥
को करुणासागर और स्व पर प्रकापाक-ज्ञानवान् कहा हैमानि रह्यौ सरनागति हों तुमरी सनि के तिहु लोक बड़ाई।।
नाके घट वस जिनवानी सो पुनीत प्रानी। वेर हो वेर पुकारत हो जन की विनती सुनिये जिनराई ॥२२
जाकं उभै मातको दया समस्त हिय है। वीतराग पच्चीसो
जाकी मति पैनी भेद स्व-पर प्रकाशिवे को। द्रव्य के विविध रूपों का वर्णन प्राचार्य कुन्दकुन्द के भिन्न भिन्न कर छनी को स्वभाव लीय है। प्रवचनसार के आधार पर बड़े ही सरस और मन नुभा
परमो ममत्व डारक सघर निज भाव । वने पद्यों मे किया है
परमउ छाउ सुध सरपान कोय है। जैसे और धातु को मिलाय वन हीन हेम
जाके भ्रम नाही पग्यौ निज ग्यान महिी मो। कसत कसौटी सौ सुदीस पराधीनता। जो पीठो पत्रक रचे दोजे प्रांच नाना भाति
तो गन को प्रथाही सत्य हो सो चित दिय है ॥१३॥ विगर सलोनी जाकी घटं न मलीनता ।।
धर्म अनेक प्रकार का है परन्तु स्यादाद दृष्टि बिना जैसे क्रिया कोटि कर प्रानी जो विवेक बिना
वह निराधार है। सुधर्म स्वामी को कवि ने धर्म रक्षक घरै व्रत मौन रहे देह कर क्षीया।
मान कर प्रणाम किया है और बाद मे "धर्म विना जन्म जान जो प्रमान भली भाति प्रगम के जीव
निम्फल" ऐमा विचार अभिव्यक्त किया हैंनिरजीव प्रादि नवतत्त्व-दरसी ।।
ज्यों जवतिय बिन कंत रन विन चद जोत भर । भरम विदारी धीरधरम जनपचारी
ज्यौ सरिताइन होइ वर्षविन ऊन सून पर। विगत विभाव सार संजमी समरसी।
ज्यों गजराज प्रवीन हीन दंतन नहि मोहत ।
मकताफल विन पान ताहि गनवत नगोहत ।। सुख दुख एक ही प्रमान जान जगते राग दोष मोह दसा डारी है विसरसी ॥
ज्यों सेना नरपति हीन कहि परम लता बिन पह पहले। ऐसौ सद्ध परम विवेकी मुनिराज
ज्यों पा नरभव निरफल कही जिन जिनक नहि धर्मधुव ॥२८ जा सुद्ध उपयोग धन घटा घट वरसी ॥८॥
इसी प्रकार बुद्धिवाउनी मे ५२ छन्द हैं। सभी एक दरसन छत्तीसी
में एक बढकर है । अन कागे का उनमे स्वाभाविक प्रयोग दर्शन पाहुड के आधार पर कवि ने मम्यग्दर्शन, है। भाण में भक्ति रस का प्रवाह है। सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का विभिन्न छन्दों मे, मगम इसके बाद तीन मूढतानो का वर्णन ३८ कवित्तो में भाषा मे वर्णन किया है। सम्यवदर्शन हीन व्यक्ति को किया गया है। तीनो मूढतापो के सात सात भेद किये मोक्ष नहीं मिल सकता।
है। तदनन्तर प्रसिद्ध कवि द्यानतरायकृत देवशास्त्र गुरु दरसन करि के हीन न सोहै जगमाहीं।
पूजा उद्धत है। यह या तो प्रक्षिप्ताषा है अथवा कवि की दरसन करके हीन ताहि अव्यय पद नाही।
अत्यन्त प्रिय पूजन रही है । द्यानतराय चि स. १८वी शती जो चरित्र करि हीन होइ जो बरसन धारी।
के कवि हैं। कवि देवीदास से वे किसी प्रकार से सम्बन्धित कम कम सेती तो न पुरुष पावं सिव नारी ॥
रहे होगे।