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अनेकान्त
शीलांग चतुर्दशी में शील के १५०० भेद गिनाये हैं। उर माहि राखे सो को तरवार ढाल की। गीत ४ मन, वचन, काय==१२४३ कृत कारित, राई मेर के समान फेर की सुवात यहै, अनुमोदन ३६४५ इन्द्रिय=२८० संस्कार, शृङ्गार, ग्रन्थ विर्ष नाहि में विलोको कहि हाल की। राग, क्रीडाहास, ससर्ग, सकल्प, तननिरीक्षण, तनमड, तिनं गर मान जैन मती जे कहावै सर्व, भोग, मन चिता=१०x१०=१००४१८०-१८०० । देखो विपरीत ऐसी पच सुकाल को ।। यहा काम की दश अवस्थाम्रो का भी वर्णन है। बाद मे ज न साधनों की पालकी प्रादि विषयक प्रालो. पापियो की मानसिक अवस्था का सुन्दर विवेचन है।
चना की है वहां उनके धन विषयक प्रेम की भी भर्त्सना
म विवेक बत्तीसी मे भेदविज्ञान का प्राख्यान है। की है। इम विपरीत रीति को देखकर कवि को इतना भाषा, भाव और अलंकार की दृष्टि से विवेक वत्तीसी दुख हुप्रा कि उमने विपरीत पाचरण करने वाले मुनि अधिक सुन्दर बन पड़ी है। अनुप्रास की छटा देखिये- वेषधारियो को शठ (मूब) कह दिया हैसरस दरस सारस पुरस धीर समर सनिवास । भेष धरैन मुनीस्वर को सुविशेष न रंव हिये महिमान। परस दरस पारस सरस पौरस सुजस विलास ॥ जोरत दाम कहावत नान जती विपरीत महा अति ठाने ।।
पचवरन के कवित्त मे देवीदास की काव्य-शक्ति और अंबर छोड़ि दिगबर होत समवर फेर गहै तजि पाने । भी निखरी-सी दिखाई देती है
जे सठि पाप कर सठ प्रौरन जे सठ लोग तिने गुर मान ॥ सिंहासन सेत पर समह सेत वारज है,
___ अन्त मे कवि इस विपरीत आचार-विचार को देखकर जाप सेत बर को प्रभा उतंग चली है।
दुःखित होता है और कहता है कि जो निग्रन्थो को छोड़ जाप सेत छत्र पर हीरा नग सेत जरे,
कर ऐसे यात्रियो को अपना गुरु स्वीकार करते है वे मनो सेत भान पर निकरी रक्ष पाली है ।।
वस्तुत. कल्पवृक्ष काटकर धतूरे का वृक्ष लगाते हैसेत जग मग जोत सेत फूप विष्ट होत,
सेवत जे सर अप गर निरग्रंथन को छोड़ि । सेत ध्यान धरै सेत सेत घर मुक्ति गली है।
कल्पवृक्ष ज्यों काटि के ठयत धतूरो गोड़ि ॥ सेत संख लछन विराजे जे जिनेस जाप,
मिथ्याती दुरजन जिन उपदेसत जे कूर । मनो सेत पंकज कर कलोल मली है ।।
जैसे स्वान कु भक्षनी के मुख देत कपूर ।। ग्रन्थ के अन्त मे पञ्चम काल की विपरीत रीति के इस प्रकार समूचा ग्रन्थ कवि की काव्य-शक्ति का विषय मे कहते हा कवि ने साधुपो के आचार-विचार की
द्योतक है। उन्होने अपना अध्यन और विचार सरल कटु पालोचना की है
भाषा और छन्दों के माध्यम से उपस्थित किया है। जाके परमान सौ परिग्रहा स जती नाही,
भाषा मे जहा मरलता है वहां उसमें अर्थगांभीर्य और जती हो समस्त संग राखं प्रादि पालको।
माधुर्य भी है। प्रवाह की मरमता मनोहारिणी है इसलिए सिष्य साखा तिनके स घोरे चई पागे चलं,
ग्रन्थ प्रकाशन के योग्य है। ★
विवेक की महत्ता अविवेकी मानो जीव अपनी रक्षा और प्रतिष्ठा के लिए दूसरे जीवो की निन्दा करता है उसे नीचा दिखाने का प्रयत्न करता रहता है। उसका प्राकार करने का भी यत्न करता है। पर विवेकी जीव अपनी निर्मल परिणति से जगत का यह राग रग देखता हुमा भी उस ओर प्रवृत्त नहीं होता, वह तो प्रात्म-निरीक्षण द्वारा अपने दोषो को दूर करने और मान को निर्मूल करने मे ही अपनी शक्ति का व्यय करता है । और विवेक से अहकार को जीतता है । यही उसकी महत्ता है।