________________
भनेकान्त
माइए हम उसी के पास चलें। ऐसा कहकर वे उसके पास साहित्यिक गतिविधि की निदर्शक एक कथा, राजा प्रतर्दन चले गये।
के सम्बन्ध मे पाती है कि किस प्रकार वह मानी ब्राह्मणों उन्होने केकयकुमार प्रश्वपति से कहा-इस समय से यज विद्या के विषय में जूझता है। शतपथ की ११वीं पाप वैश्वानर प्रात्मा को अच्छी तरह से जानते हैं, इस- कण्डिका मे राजा जनक सभी पुरोहितों का मुंह बन्द कर लिए उसका ज्ञान हमें दें।
देते है और तो और ब्राह्मणों को जनक के प्रश्न समझ में दूसरे दिन केकयपति प्रश्वकुमार ने उन्हें प्रात्म-विद्या ही नही पाए ? एक और प्रसग मे श्वेतकेतु-सोमशुष्य भोर का उपदेश दिया १ । ब्राह्मणों के ब्रह्मगत्व पर तीखा व्यग याज्ञवल्क्य सरीखे माने हुए ब्राह्मणों से प्रश्न करते हैं कि कराते हुए पलातशत्रु ने गार्य से कहा था-ब्राह्मण अग्निहोत्र करने का सच्चा तरीका क्या है और किसी से क्षत्रियों की शरण इस प्राशा से पाए कि यह मुझे इस इसका सन्तोषजनक उत्तर नहीं बन पाता। यज्ञ की ब्रह्म का उपदेश करेगा, यह तो विपरीत है, तो भी मैं दक्षिणा अर्थात् सौ गाए, याज्ञवल्क्य के हाथ लगती है, तुम्हें उसका ज्ञान कराऊंगा ही२।।
किन्तु जनक साफ-साफ कहे जाता है कि अग्निहोत्र की प्रायः सभी मैथिल नरेश प्रात्म-विद्या को प्राश्रय भावना प्रभी स्वयं याज्ञवल्क्य को भी स्पष्ट नहीं हुई देते थे ।
और सत्र के अनन्तर जब महाराज अन्दर चले जाते है तो ___एम-विटरनित्स ने इस विषय पर बहुत विशद विवे. ब्राह्मणो मे कानाफूसी चल पडती है कि यह क्षत्रिय होकर चना की है। उन्होंने लिखा है-भारत के इन प्रथम हमारी ऐसी की तैसी कर गया खैर हम भी तो इसे सबक दार्शनिकों को उस युग के पुरोहितों मे खोजना उचित न दे सकते हैं-ब्रह्मोद्य (के विवाद) मे इसे नीचा दिखा होगा, क्योंकि पुरोहित तो यज्ञ को एक शास्त्रीय ढांचा सकते है ? तब याज्ञवल्क्य उन्हे मना करता है-देखो, देने मे दिलोजान से लगे हुए थे जबकि इन दार्शनिको का हम ब्राह्मण है और वह सिर्फ एक क्षत्रिय है. हम उसे ध्येय वेद के अनेकेश्वरवाद को उन्मूलित करना ही था। जीत भी ले तो हमारा उससे कुछ बढ़ नहीं जाता और जा ब्राह्मण यज्ञा के प्राडम्बर द्वारा हा अपना राटा कमाते अगर उसने हमे हरा दिया तो लोग हमारी मखौल उड़ाहैं. उन्हीं के घर में ही कोई ऐसा व्यक्ति जन्म ले ले जो एंगे। देखो? एक छोटे से क्षत्रिय ने ही इनका अभिमान इन्द्र तक की सत्ता में विश्वास न करे, देवताम्रो के नाम चर्ण कर डाला । और उनमे (अपने साथियों से) छुट्टी से पाहुतियां देना जिसे व्यर्थ नजर प्राए, बुद्धि नही
पाकर याज्ञवल्क्य स्वय जनक के चरणो में हाजिर होता मानती । सो अधिक संभव नही प्रतीत होता है कि यह भगवन ! म भी बहा.विक्षा सम्बन्धी अपने स्वानभव दार्शनिक चिन्तन उन्ही लोगों का क्षेत्र था, जिन्होंने वेदो
था, जिन्हान वदा का कुछ प्रसाद दीजिए १ और भी ऐसे अनेक प्रसग मिलते मे पुरोहितो का शत्रु अर्थात् परि, कजूस, 'ब्राह्मणो का है. जिनसे प्रात्म विद्या पर क्षत्रियो का प्रभुत्व प्रमाणित दक्षिणा देने से जी चुराने वाला' कहा गया है।
होता है। उपनिषदों में तो, और कभी-कभी ब्राह्मणों मे भी
प्रात्म-विद्या के पुरस्कर्ता ऐसे कितने ही स्थल पाते है जहा दर्शन-अनूचिन्तन के उस एम० विन्टरनिटज ने लिखा है-जहां ब्राह्मण यज्ञयुग प्रवाह में क्षत्रियों की भारतीय संस्कृति को देन स्वतः याग आदि की नीरस प्रक्रिया से लिपटे हुए थे, अध्यात्मसिद्ध हो जाती है।
विद्या के चरम प्रश्नों पर और लोग स्वतंत्र चिन्तन कर कौशीतकी ब्राह्मण (२६।५) में प्राचीन भारत की रहे थे। इन्ही ब्राह्मणेतर मण्डलों से ऐसे वानप्रस्थों तथा १. छान्दोग्योपनिषद ५।११।१-७, पृ० ५३६-५४३
रमते परिव्राजकों का सम्प्रदाय उठा-जिन्होंने न केवल २. बृहदारण्यकोपनिषद २०१२१५, पृ० ४२२
ससार मौर सासारिक सुख वैभव से अपितु यज्ञादि की ३. श्रीविष्णु पुराण ४१५१३४, पृ० ३१०
१. प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, प्रायेणते प्रात्म-विद्यायिणो भूपाला भवन्ति ।
पृ. १८३।