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अनेकान्त
यात्री पर दर डोई चार पाना कर लेकर सरकार देवी नजर पाती है। वह निराभरण स्वरूप, दिगबर मुद्रा, की भोर से नंदादीप के लिए घी मिलता था । अतः इसके वीतराग छवी तथा नासाग्रदृष्टि रूप प्रसन्न मुख देखते संबंधित अधिकारी फेरी कमल साहेब को इस महोत्सव ही सहज ही भक्तिभाव से दोनों हाथ जुड़ जाते है। हर में बुलाया गया तथा हर यात्री को कर मुक्त करने की यात्री यहां नत मस्तक होकर भगवान के सामने साष्टाग अर्जी उनके सामने रखी गई। तब विचार विमर्ष होने प्रणिपात करता है। पर उन्होंने घी बन्द कर यात्री कर उठाने की घोषणा की दिगबर जैन धाकड़ समाज ने यह मन्दिर भट्टारक थी। किन्तु दिगंबर जैन समाज ने उस समय उनका श्री जिनसेन के स्मृति निमित्त निर्माण किया था। अतः यथोचित सत्कार किया था, उससे प्रेरित होकर इस इस मन्दिर मे बायी ओर उनका गुरूपीठ है। उस पर मन्दिर के उत्पन्न (प्राय) के लिये मेरे यह गाव (याने यहां अभी १०८ श्री कुदकुदाचार्य जी का तथा वीरसेन भट्टाके उत्पन्न) इनाम देने की इच्छा प्रगट की थी। किन्तु रकजी (जिनसेन के परपरागत अन्तिम शिष्य २ का फोटो समाज ने उनका केवल प्राभार मानकर ही उसे स्वीकार विराजमान है। नहीं किया था।
यहा से नीचे भोयरे में उतरने के लिए सीधे हाथ से इस महाद्वार से अन्दर जाते ही प्रावार के मध्य में एक अरु द मार्ग है । प्राइये अब नीचे चलेगे । मन्दिर की बड़ी इमारत दिखती है। इसका ऊपर का भोयरे मेंईटो से और नीचे का काम पत्थरों से किया गया है।
यहां जो बीच मे ३॥ फुट ऊँची, कृष्ण वर्ण तथा ऊपर एक छोटा सा गुमटाकार शिखर है। सामने, एक सर्पफ.णालत मति दिखती है वह है श्री अतरिक्ष पायसमय एक ही पादमी प्रवेश कर सके, ऐसा छोटा दरवाजा
नाथ भगवान । इसकी प्राप्ति होने पर श्रीपाल ईल गजा दिखता है, बस यह ही श्री अ. पा० दिगबर जैन बस्ती
इमे एलिचपर ले जाना चाहता था, मगर यह यहा ही मन्दिर है । इसीके एक भोयरे मे देवाधिदेव, त्रिलोकीनाथ
प्राकाश में स्थिर हो गई ३ । कहा जाता है कि उस समय श्री प्रतरिक्ष प्रभु विराजमान है।
यह प्रतिमा ७ से ८ फीट ऊंचाई पर स्थित थी। इसके इस छोटे दरवाजे से अन्दर प्रवेश करने पर चौक
नीचे मे पनिहारी स्त्री मिर पर घडा रखकर सहज जा मिलता है। उसके चारों ओर चार फीट ऊचा चबतरा
सकती ४ थी। यह भी कहा ज ता५ है कि इस प्रतिमा जी है। उसके ऊपर तीन बाजू में दिगंबरी पेढ़ी का सामान ही
के नीचे से एक घोड़े का सवार भी निकल सकता था। बैठक, पेटी, कपाटे प्रादि है तथा पश्चिम बाजू मे भट्टारक
किसी किसी का यह भी कहना है ६ यह मूर्ति इसी भोयरे श्री जिनसेन के स्मृति रूप सेनगन का मन्दिर है। प्रायो
मे वि० सं० ५५५ में भी विराजमान थी। यह मूर्ति यहा यहा जल से हाथ पांव धोकर चन्दन लगाएं पोर अन्दर
कब से विराजमान है। इस विवाद के विषय को छोड चलें।
भी दिया तो भी दसवी सदी में इस मूति की, ऊपर जैसी सुनिये ये सामने की घड़ी१ क्या कहती है-"टन्
स्थिति थी यह सुनिश्चित है। किन्तु आज यह मूर्ति सिर्फ टन् टन् । ई० स० १८७७ फाल्गुन वदी ७मी से यहां
एक अगुल भर ही अधर है। मूर्ति का एक भाग जमीन है। मैं हर यात्रे करू से गर्ज कर कहती हूँ कि मेरा
का सहारा ले रहा है। चौदहवी सदी मे मूर्ति इतनी ही मालिक था दिगंबर जैन, निरमल (यह गाव हैद्राबाद के
अधर थी इसके अनेक उल्लेख मिलते है। पास है) का रहने वाला नाम है उसका-व्यकोबा काशीबा कोठारी बोगार । टन्, टन, टन् ।"
२. देखो येनगण भट्टारक परपरा यह हमारा लेख, अने। मन्दिर जी मे प्रवेश करते ही सामने एक वेदी पर
३. भट्टारक श्री महिचद्रकृत अ पा. विनंति देखो।
४. सोमधर्मगणी रचित इतिहास देखो। २०-२५ दिगंबर जैन मूर्ति तथा पीतल की एक पद्मावती
५. महिचद्र तथा लावण्य समय । १. घण्टा के ऊपर के लेख के आधार से ।
६. अकोला डि. गजेटियर ई. स. १९११ ।