________________
भो अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ बस्ती मदिर तथा मूलनायक भूति-शिरपुर
मूर्ति अधर कैसी है-इस चमत्कार का चक्षुर्वे इस तरह प्रभु के गुण गौरव करने के भाव सहज ही सत्यम् अनुभव के लिए (१) वहा का पुजारी मूर्ति के निर्माण होते हैं। बाद मे दाहिनी भोर के श्री १००८ नीचे से एक वस्त्र डालकर पीछे से निकालकर बताता है। महावीर भगवान के वेधो पर स्थित सभी दिगंबर मूर्ति (२) तथा भोयरे का विद्युतप्रकाश बन्द कर दो निरांजनी के सामने भक्ति से यात्री कहता है।-हे महावीर प्रभो, (दीप) मूर्ति के पीछे रखकर मूर्ति की स्थिति स्वयं प्रज- अनेक गुणों से तथा विभूति से विभूषित पात्मिक गुणों से माने को कहता है, देखो मूर्ति के नीचे से पीछे का प्रकाश परिपूर्ण, कीर्ति सपन्न ऐसे भाप समवशरण मे जब थे, दिखता है।
तब चद्रमा के समान आकाश मे (अधर ही) विहार
करते या स्थिर थे । प्रत. प्रापके धवल रूप को शत शत चमत्कार-मूर्ति का जमीन से अन्तर देखने के लिए।
प्रणाम । बोलिये श्री महावीर भगवान की जय । यात्री स्वयं नत मस्तक हो जाता है। क्या यह कम चमत्कार है ? सिर्फ मूर्ति का चमत्कार देखने के लिए बाई ओर यह श्री १००८ मादि प्रभु की दिगंबरी यहा पाने वाले और अपना शिर न झुकाने वाले का शिर वेदी है। इसमे प्रादि प्रभु की मूर्ति की स्थापना भट्टारक खुद ही झुक जाना, इसमे ही प्रभु का प्रभुत्व है। श्रीसोमसेन ने श्रीपुर मे ही शके १६६१ (ई० स० कैसा प्रभुत्व है
१६३६) मे की थी। इस वेदी पर स्थित सभी दिगबर प्रात्म गुण मण्डिते, पाश्र्वनाथ वदना ।।
मूर्ति, यत्र, पादुका प्रादि की भक्ति वंदना कर मागे अलंकार छडिक, क्षातिसखी सेवना।
भगवान पार्श्वनाथ को शासन देवता पद्मावती माता का प्रात्मरूप ध्यान है, वीतराग कारणे ।
विनय करने का भाव सहज ही पैदा होता है। इसके द्वय निर्ग्रन्थ पद, प्रात्मधर्म साधने ॥१॥
शिला पर उत्कीर्ण अन्य दिगंबर मूर्ति की भक्ति करते हम सम तव नाही, राग ब्राह्म दियो ।
समय याद आती है कि, इस मातृछत्र की स्थापना अन्य विषमय रूप मान, प्रेम बाबासनो में ।
एक पार्श्व प्रभु की मूर्ति के साथ वि. स. १६३० कार्तिक सहजहि तव वे थे, प्राप्त दिव्यान्न वस्त्र । सुदी १३ (ई. म. १८७४) के दिन हुई थी। जिसके अंबर तव विशा ही, अन्य माने तूं प्रस्म ॥२॥ संस्थापक 'बालसा' दि. जैन कासार है।
देखिये, जहां पेड का एक पत्ता प्राकाश मे बिना इसके नजदीक ही बालात्कारगण के भट्रारकों का प्राधार क्षण भर भी स्थिर नही रह सकता वहा करीब गुरुपीठ है। उस पर श्री १०८ कुदकुदाचार्य का तथा एक सहस्र वर्षों से ३।। फीट ऊँची, मजबूत पत्थरो की भ. श्री देवेन्द्रकीति जी का फोटो है। बीच में एको चांदी अनेक (गृण रत्नो से) परिपूर्ण प्रतिमा यहा अतरिक्ष की कवली (शास्त्री जी रखने का प्रासन) है। उस पर स्थित है। यह यहा शिरपुर में पाकर देखने पर किसके दि. जैन शास्त्र रहते है। मन को चकित न करेगी? हरेक के मन को हरने वाले इसी तरह प्रागे के दालान में चार दिगंबरी वेदिया श्री देवाधिदेव पाश्र्वप्रभु के दिगबर जैन शासन का दुनिया है। प्रतिम भाग मे रखी हई ३ फीट ऊँची पत्थर की में जय जय कार हो । बोलिये-श्री अंतरिक्ष पाश्वनाथ प्राचीन प्रतिमा पर दृष्टि केन्द्रित होती है। हा, यह भगवान की जय।
गुडघों के पास खडिन होने पर भी प्रखण्ड है। यह
प्रतिमा एक ऐतिहासिक घटना को सूचित करती है। ८. पत्र यत्र विहायसि प्रविपुले स्थातु क्षण न क्षम ।
(क्रमश) तत्रास्ते गुणरत्न गहणगिरियो देवदेवो महान ।। चित्र मात्र करोति कस्य मनसो दृष्ट. पुरे श्रीपुरे। कीा भुवि भासितया वीर, त्व गुण समुत्यया भासितया। म श्रीपाश्र्वजिनेश्वरो विजयते दिग्वाससां शासनम् ।।३ भासोड्सभासितया, सोम इव व्योम्नि कुदशोभासितया।