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मात्म-विवाभियों की देन
पार।
हिरण्यगर्भ के मूल स्वरूप की जानकारी के प्रभाव में जम्बूढीप प्राप्ति, कल्पसूत्र पौर श्रीमद् भागवत के
क प्रचलित था। भाष्यकार सायण के अनुसार हिरण्यगर्भ
बल संदर्भ में हम पात्म-विद्या का प्रथम पुरुष भगवान ऋषभ ।
देहधारी है। प्रात्म-विद्या, सन्यास मादि के प्रथम को पाते हैं। कोई पाश्चर्य नहीं कि उपनिषद्कारों ने ऋषभ प्रवर्तक होने के कारण इस प्रकरण में हिरण्यगर्भ का प्रय को ही ब्रह्मा कहा हो।
ऋषभ ही होना चाहिए। हिरण्यगर्भ उनका एक नाम भी ब्रह्मा का दूसरा नाम हिरण्यगर्भ है। महाभारत के रहा है। ऋषभ जब गर्भ मे ये तब कुबेर ने हिरण्य की अनुसार हिरण्यगर्भ ही योग का पुरातन विद्वान है, कोई वष्टि की थी. इसलिए उन्हें हिरण्यग भी कहा गया दूसरा नहीं२ । श्रीमदभागवत् में ऋषभ को योगेश्वर कहा कर्म-विद्या और प्रात्म-विद्या है३ । उन्होंने नाना योग-चर्यामों का चरण किया था।
। कम-विद्या और प्रात्म-विद्या-ये दो धाराएं प्रारम्भ हठयोग प्रदीपिका में भगवान ऋषभ को हठयोग-विद्या के ।
से ही विभक्त रही हैं। मरीचि, अगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, उपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया गया है। जैन
पुलह, ऋतु और वशिष्ठ-ये सात ऋषि ब्रह्मा के मानस प्राचार्य भी उन्हें योग-विद्या के प्रणेता मानते है। इस
पुत्र है। ये प्रधान वेदवेत्ता पोर प्रवृत्ति-धर्मावलम्बी है। दृष्टि से भगवान् ऋषभ पादिनाथ, हिरण्यगर्भ और ब्रह्मा
इन्हें ब्रह्मा द्वारा प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित किया इन नामों से अभिहित हुए हैं।
गया। यह कर्म-परायण पुरुषों के लिए शाश्वत मार्ग ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ भूत जगन् का एक
प्रकट हुप्रा११। मात्र पति है । किन्तु उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह
सन, सनत्, सुजात, सनक, सनंदन, सनस्कुमार, परमात्मा है या देहधारी ? शंकराचार्य ने बृहदारण्यकोप
कपिल और सनातन-ये सात ऋषि भी ब्रह्मा के मानस निषद् मे ऐसी ही विप्रतिपत्ति उपस्थित की है-किन्ही
पुत्र है। इन्हें स्वयं विज्ञान प्राप्त है और ये निवृत्ति धर्माविद्वानों का कहना है कि परमात्मा ही हिरण्यगर्भ है और
वलम्बी है। ये प्रमुख योग-वेत्ता, साख्य-ज्ञान-विशारद, धर्मकई विद्वान् कहते है कि वह ससारी है। यह सन्देह
शास्त्रों के प्राचार्य और मोक्षधर्म के प्रवर्तक हैं१२ । १. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ५, ०४६ __ येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ., श्रेष्ठ गुणः प्रासीत्।
६. तैत्तिरीयारण्यक, प्रपाठक १०, अनुवाक ६२ सा. भाष्य । २. महाभारत, शान्तिपर्व, प्र० ३४६६५
१०. महापुराण, पर्व १२, श्लोक ६५
संपा हिरण्मयी वृष्टिः धनेशेन निपातिता । हिरण्यगर्भो योगस्य, वेत्ता नान्यः पुरातनः ।
विभोहिरण्यगर्भत्व मिव बोधयितु जगत् ।। ३. स्कन्ध ५, ५०४३ भगवान् ऋषभ देवो योगेश्वर ।
११. महामारत, शान्तिपर्व, प्र० ३४०।६६-७१ । ४. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ५, प्र० ५।३५
मरीचिरङ्गिराश्चात्रि: पुलस्त्यः पुलहः ऋतूः । नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपति ऋषभः ।
वसिष्ठ इति सप्तत मानसा निमिता हि ते । ५. हठयोग प्रदीपिका
एते वेदविदो मुख्या वेदाचार्याश्च कल्पिताः । श्रीग्रादिनाथाय नमोस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोग विद्या?
प्रवृत्तिमिणचव प्राजापत्ये प्रतिष्ठिताः ।। ६. ज्ञानार्णव ११२
प्रय क्रियावता पन्थथ व्यक्तीभूतः सनातन. । योगिकल्पतरु नैमि, देव-देवं वृषध्वजम् ।
अनिरुद्ध इति प्रोक्तो लोकसर्गकरः प्रभुः ।। ७. ऋग्वेद सहिता, मण्डल १०,५०१०, सूत्र १२१, मत्र १ १२. महाभारत, शान्तिपर्व, प्र० ३४०१७२-७४ हिरण्यगर्भः समवतंताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक प्रासीत् । सनः सनत्सुजातश्च सनक: ससनन्दनः ।
स दाधार पृथिवी द्यामुतेमा कस्मं देवाय हविषा विधम् ।। सनत्कुमारः कपिल. सप्तमश्च सनातन । ८. बृहदारण्यकोपनिषद्, भाष्य ११४१६, पृ० १८५
सप्तते मानसा प्रोक्ता ऋषयो ब्रह्मण. सुताः । पत्र विप्रतिपद्यन्ते पर एव हिरण्यगर्भ इत्ये के। संसारीत्यपरे। स्वयमागतविज्ञाना निवृत्ति धर्ममास्थित. ॥