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सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव
विणपडिम-बीरचरिया-तियाल जोगेषु णत्यि अहियारो। प्राचार्य हेमचन्द्र भी इसके पूर्व १८-४५ श्लोकों में सिद्धतरहस्साण वि प्रज्झयणे देसविरदाणं ॥ व ३१२ मुनिधर्म का निरूपण कर चुकने पर यहा यह कहते है कि यही बात सागारधर्मामृत मे भी इसी प्रकार से कही सर्व मावद्य के त्यागरूप यह मुनियो का धर्म कहा जा
चुका है। इस मुनिधमं मे अनुरक्त गृहस्थों का वह श्रावको वीरचर्याऽहःप्रतिमातापनादिषु ।
चारित्र गर्वात्मना-सर्वविरतिरूप-न होकर देशत.स्थानाधिकारी सिद्धान्त रहस्याध्ययनेऽपि च ॥७-५० ५. योगशास्त्र व मागारधर्मामृत
एकदेगविरतिरूप-ही होता है।
यहा सागारधर्मामत के उक्त श्लोकगत 'तद्धर्मरागिणा' प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा विरचित योगशास्त्र में प्रमु
और 'मागाराणा' तथा योगशास्त्र के इस लोक में प्रयुक्त खता से योग (ध्यान) का वर्णन है। पर प्रमगवश वहा
'यतिधर्मानुरक्ताना' और 'अगारिणा' पद विशेष ध्यान चारित्र के वर्णन मे श्रावकाचार की भी प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत सागारधर्मामत की रचना मे प० माशाधर ने
देने योग्य है। इस योगशास्त्र का भी बहुत कुछ उपयोग किया है।
२ सागारधर्मामृत के प्रथम अध्याय मे श्लोक ११ के ... र द्वारा कैसा गृहस्थ गृहस्थधर्म के प्राचरण के योग्य होता अन्य भी श्वेताम्बर ग्रन्थो का सहारा लिया है। इस
है, यह बतलाने के लिए वहा 'न्यायोपात्तधनः' मादि १४ योगशास्त्र का सागारधर्मामृत पर कितना प्रभाव है, यह
विशेषरण दिये गये है। गृहस्थ की इस विशेषता का वर्णन देखने के लिए यहा इन दोनो ग्रन्थो के कुछ इलोको का ।
योगशास्त्र में प्रथम प्रकाश के अन्तर्गत इलोक ४७.५६ मे मिलान किया जाता है।
विस्तार से उपलब्ध होता है । वहा गृहस्थ की इस विशे
पता को व्यक्त करने के लिए जो ३५ विशेषण दिये गये यहां यह स्मरणीय है कि उक्त सागारधर्मामृत धर्मामृत
है उनमे सा ध के वे १४ विशेषण समाविष्ट है। यथाग्रन्थ का उत्तर भाग है, पूर्व भाग उसका अनगारधर्मामृत
१ न्यायोपात्तधन ३ ( न्यायमम्पन्नविभव.--यागहै। इन दोनो ही भागो पर प० प्राशाधर विरचित स्वोपज
शा. १-४७), २ गुणगुरून यजन्४ (मातापित्रोश्च पूजक - टीका भी है। इसी प्रकार हेमचन्द्र विरचित योगशास्त्र पर भी विस्तृत स्वोपज्ञ विवरण उपलब्ध है।
१ दोनो ग्रन्थो की स्वोपज्ञ टीका मे 'न्यायोपात्तपन: १ सागारधर्मामृत का प्रथम श्लोक इस प्रकार है- (न्यायसम्पन्नविभव:)' का स्पष्टीकरण इस प्रकार प्रथ नत्वाऽहतोऽक्षणचरणान् श्रमणानपि ।
किया गया हैतद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते ।।
मा.ध -स्वामिद्रोह-मित्रद्रोह विश्वमितवञ्चन-चौर्याप० माशाधर अनगारधर्मामृत मे मुनिधर्म का निरूपण दिगवार्थोपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूत: स्व-स्व. कर चुकने के पश्चात् यहा गृहस्थधर्म का वर्णन प्रारम्भ वर्णानुरूपः मदाचागे न्यायः, तनोपात्तमुपाजितमात्मकरते हुए सर्वप्रथम यह प्रतिज्ञा करते है कि अब आगे उस सात्कृत धन विभवो येन म तथोक्त । (यो शा. पृ. १४५ मुनियम में अनुराग रखने वाले गृहस्थो के धर्म का -स्वामिद्रोह-मित्रद्रोह-विश्वसितवञ्चन-चौर्यादिगानिरूपण किया जाता है।
थोपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूत: स्व-स्ववर्णानइसका मिलान योगशास्त्र के इस श्लोक से कीजिए
प: मदाचारी न्यायस्तेन सम्पन्न उत्पन्नो विभवः सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतच्चारित्रमोरितम् ।
मम्पद्यस्य स तथा ।) यतिधर्मानुरक्ताना देशतः स्यादगारिणाम् ॥
तथा गुरवो माता-पितरावाचायंश्च, नानपि पूजयन्___ योगशास्त्र १-४६
त्रिमध्यप्रणामकरणादिनोपचरन्, तथा गुणनि१ इसका ग्रन्थपरिचय अनेकान्त वर्ष २०, किरण १ मयमादिभिर्गुरवो महान्तो गुणगुरवस्तानपि यजन् (अप्रेल १६६७) पृ० १९-२१ पर देखिये ।
-मेवाजल्यासनाभ्युत्थानादिकर णगणेन मानयन् । यथा-ग्रावश्यकचूणि और थावकप्रज्ञप्ति प्रादि।
(सा. ध. म्वो. टोका)