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मन्दसौर में जनय
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नरेश चण्डप्रद्योत का अधिकार भी दशपुर पर रहा१३ । भो उसकी वन्दना की जाती है१६ । छठी शती ई.पू. मौर्य सम्राट अशोक जब प्रवन्ति महाजनपद का क्षत्रप मे सिन्धु सौवीर देश२० के वीतभय पतनपुर२१ के राजा था तब उसके पश्चिम प्रान्तीय शासन मे दशपुर भी उदायन२२ के पास महावीर स्वामी को एक पन्दन की सम्मिलित रहा होना चाहिए। उसके पश्चात् यहाँ शुङ्ग प्रतिमा थी जिसे जीवन्त स्वामी कहा जाता था। इसकी और शक राजामों का अधिकार रहा । प्रारम्भिक सात पूजा उदायन और उसकी रानी प्रभावती किया करती वाहनों ने नासिक, शुपरिक, भृगुकच्छ और प्रभास के थी। प्रभावती की मृत्यु के पश्चात् उसकी दासी देवदत्ता साथ दशपुर को नष्ट-भ्रष्ट किया था१४ । क्षहरात क्षत्रप उस मूर्ति की पूजा किया करती थी। उसका उज्जयिनी नहपान के शासनकाल में उसके दामाद उपवास (ऋषभ- के राजा चण्डप्रद्योत से प्रेम हो गया जिसके साथ वह दत्त) ने जन साधारण के उपयोग की बहुत सी चीजे दश- उज्जयिनी भाग गयो । भागते समय वह अपने साथ जीपर लाकर अशोक की कीति से प्रतिस्पर्धा की थो१५ । वान्त स्वामी की मूर्ति भी लेती गयी लेकिन उसके स्थान चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी दिग्विजय यात्रा में वर्मन् राज- पर एक वैसी ही दूसरी मूति छोड़ गयी। यह सब ज्ञात वश को अपने अधीन करके उन्हें दशपुर का राज्यपाल होते ही उदायन ने चण्डप्रद्योत का पीछा किया और उसे नियुक्त किया था। विश्ववर्मन् १६ इन राज्यपालो मे से कैद कर लिया। लौटते समय, अतिवृष्टि के कारण उदायन एक था, जो कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में भी चार माह के लिए शिवना के तट पर रुक गया। एक दिन विद्यमान था। इसके पश्चात् यहा वधन, मोरेवरी, मंत्रक पयंपण पर्व में उसका उपवास था। रसोइए से यह जान पौर कलचुरी प्रादि शासकी ने शासन किया१७ ।
कर चण्डप्रद्योत ने भी अपना उपवास घोषित कर दिया। जैन धर्म:
यह सुनकर उदायन समझा कि चण्डप्रद्योत जैनधर्मावलम्बी दशपुर में जैनधर्म का प्रचार प्राचीनकाल से ही रहा
है प्रत. उसने उसे ससम्मान मुक्त कर दिया२३ । फिर है। उसकी गणना जैन तीर्थों में की गयी है१८ पोर प्राज
उसने उस प्रतिमा को लेकर वहां से प्रस्थान करना चाहा १३. प्रावश्यक सूत्र की वृत्ति प्रादि ।
१६. उपयुक्त स्तोत्र के रूप में जिसका पाठ प्राज भा १४. ला, विमलचरण . हिस्टोरिकल जाग्रफी प्रॉफ ऐंश्येंट
प्रतिदिन विशेषत. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज म इण्डिया, पृ० २८१ ।
किया जाता है। १५. वही।
२०. व्यासप्रज्ञप्ति (१३, ६; १० ६२०) म इसे सिन्धु १६. इसके दो अभिलेख मिले है, देखिए : एपि. इंडिका,
नदी के प्रासपास का प्रदेश कहा गया है। जि. १२, पृ. ३१५, ३२१: वही, जिल्द १४, पृ०
२१. यह सिन्धु सौवीर की राजधानी थी और इसका ३७१, जे. बी. मो. मार. एस. जिल्द २६, पृ १२७
दूसरा नाम कुम्मारप्रक्षेप (कुमार पक्खेव) था। १७ विस्तार के लिए देखिए : विद्यालङ्कार, जयचन्द्र
देखिए प्रावश्यकणि, २ पृ० ३७ । इसके ममीकरण इतिहास प्रवेश, पृ० २५१ और पागे।
के लिए देखिए जैन जगदीशचन्द्र . जंन प्रागन १८. चम्पायां चन्द्रमुख्यां गजपुर मथुरा
साहित्य में भारतीय समाज पृ० ५८२ । पत्तने चोज्जयिन्यां,
२२ इसका उल्लेख महावीर स्वामी द्वारा दीक्षित पाठ कोशाम्ब्या कोशन्यायां कनकपुरवरे
गजाग्रो के माथ हुप्रा है। देखिए स्थानाङ्ग ६, ६२१, देवगिर्यां च काश्याम् ।
व्याख्याप्राप्ति, १३, ६ । नामिक्ये राजगेहे दशपुरनगरे
२३ उत्तराध्ययन टीका, १८, पृ० २५३ प्रादि । प्रावभहिले ताम्रलिप्त्या, श्रीमतीर्थकराणां प्रतिदिवममहं
श्यकणि, पृ० ४०० प्रादि । गय चौधरी, एच. गी नत्र चैत्यानिवन्दे ।
पालिटिकल हिस्ट्री माफ ऐश्यंट इणिया, (कलकता -जैनतीर्थमालास्तोत्र ।
१९३२), पृ० १७, १३२. १६५ ।